

लघुकथा
छठ
बनवारी बाबू पिछले कई दिनों से पत्नी को समझा रहे हैं।शरीर जब साथ नहीं दे रहा है; तो’ छठ -बरत’ करने पर क्यों अड़ी हो। कौशल्या हँसकर कहती -“आप चिंता मत कीजिए।’छठी मइया’ सब पार लगा देंगी।सूरूज बाबा की ‘किरपा’ से कोनो दिकत नय होगा। ”
बनवारी के मन में डर समाया हुआ है ।दो महीने की बीमारी से अभी भी कौशल्या का शरीर कमज़ोर है।डाक्टर ने समय से खाने -पीने कहा है।
देखते ही देखते दिवाली आ गई । दोनों ने मिलकर घर के कोने -कोने को उजाले से भर दिया। इस बात की खुशी ज्यादा मन में है कि दीपावली के दूसरे- तीसरे दिन पूरे घर में रौनक आ जाएगी।
बहू -बेटे और पोता-पोतियों के आ जाने से बनवारी बाबू के घर में उत्सव का माहौल है।यों तो इनका घर किनारे पर है,पर टोले भर के लोग आजकल कुछ अधिक ही आने -जाने लगे हैं।कौशल्या के सूखे गात में न जाने कहाँ से शक्ति आ गई है।पूरे मन से छठ का ‘नेम -धरम’ कर ‘परसाद’ के लिए तैयारी में लगी हुई है।
इधर बनवारी बाबू बच्चों के साथ बच्चे बने हुए हैं ।जब कोई काम के लिए कौशल्या उन्हें पुकारती ,तो वे बेटे का नाम लेकर कहते –“‘फलनवाँ’ है न।”
कई बार कौशल्या झुंझला उठी ,मगर बनवारी बाबू बच्चों में मगन रहते।हार-पार कर कौशल्या अपने बेटे को पुकारती।
देखते -ही -देखते छठ बीत गया ।बच्चे वापस जाने वाले हैं शहर। कौशल्या बहू से पूछ रही है -“फिर कब आओगी ?।”
“पता नहीं , कब समय मिले ….”
“समय तो निकालना पड़ता है,
“फिर बच्चों की पढ़ाई भी तो …।”
” हमने भी अपने बच्चे पढ़ाएँ हैं।” -कौशल्या का स्वर जरा मद्धिम हो गया।
बहू ने दिलासा दिलाया –
“माँ जी!अगले छठ में फिर से हम जरूर आएँगे।”
पास में खड़े बनवारी बाबू सब सुन रहे हैं। अब उन्हें यह समझ में आ गया कि डाक्टर के मना करने पर भी कौशल्या छठ करना क्यों नहीं छोड़ती।
–नवीन कुमार ‘नवेंदु’
बानो,सिमडेगा(झारखंड)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
