लघुकथा : विकास – आर एस माथुर इंदौर

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लघुकथा

विकास

सामने से मेरा अज़ीज़ दोस्त चला आ रहा था। नितांत अनौपचारिक भाव से मैंने पूछ लिया,,”क्या हाल है तेरा। कई दिन बाद दिखा!”
ठीक हूं । कुछ नई परेशानी में हूं। बेटे का जहां नाम लिखाया था वो स्कूल कुछ सरकारी शर्तें न मानने से बंद हो गया।” बात वास्तव में चिंता की थी। मैंने भी दिखाई।
“नहीं पैसे वापस मिल गए हैं मगर अब कहां नाम लिखाऊं?” वह सोच रहा था या पूछ।तय करना मुश्किल लगा।
“मेरे घर के पास एक नया स्कूल है। दो साल से चल रहा है,बच्चे कम टीचर अच्छे और कल उसके मालिक आए भी थे । नए भर्ती करने के लिए मदद मांगने। मेरे साथ चलना। कल ये काम हो जाएगा।”मैंने थोड़ा सीना फुलाता हुआ सा जवाब दिया।
” और बता!”
पूछते ही जैसे वो तैयार बैठा हो,,मेरे घर के सामने ही एक और मकान बनने लगा है। रोज ट्रक आते हैं ,,गिट्टी ईंटें ,मजदूर,,दुनियां भर की परेशानी ,,शोर धूल और ,,”
“देख! जब तूने मकान बनाया था था तीन साल पहले तब वहां कोई मकान था क्या?”
“नहीं तो,,मगर इससे क्या मतलब?वह कुछ लिंक नहीं कर पा रहा था।
“अगर ये मकान जो अब बन रहा है,,तुम्हारा होता और तुम्हारी जगह वो रह रहा होता जिसका मकान आजकल बन रहा है ,,तब!” मैने फिर प्रश्न उछाला।
उसकी समझ में कुछ कुछ आने लगा था।
पता नहीं खुश या दुखी पर अब उसके पास समस्याओं की नई श्रृंखला थमने लगी थी।

आर एस माथुर
इंदौर

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