किताबों की दुनिया : मिर्ज़ा ग़ालिब की चिराग- ए – दैर (मन्दिर का दीया) – द्वारा लतिका जाधव, पुणे

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किताबों की दुनिया : काव्य विधा

द्वारा : लतिका जाधव, पुणे, (महाराष्ट्र)

चिराग- ए – दैर (मन्दिर का दीया)
मूल फ़ारसी – मिर्ज़ा ग़ालिब
हिंदी अनुवाद – सादिक़

सन 1827 में कोलकाता यात्रा के दौरान मिर्ज़ा ग़ालिब बनारस रुके थे। बनारस जो हिंदुओं का पवित्र धर्मस्थल है। इस शहर का उन्नीसवीं सदी का वर्णन मिर्ज़ा ग़ालिब (१७९७- १८६९) की मूल फ़ारसी मसनवी ‘चिराग़- ए – दैर’ में प्रतिबिंबित होता है। अब आज से करीबन २०० साल पुराना यह वर्णन है ऐसा ही समझना चाहिए। अपने बहुसांस्कृतिक देश के प्रति उनके विशाल दृष्टिकोण का परिचय भी इस मसनवी को पढ़कर मिलता है। मिर्ज़ा ग़ालिब की बनारस पर केंद्रित फ़ारसी मसनवी (कविताओं) का हिंदी अनुवाद प्रो. सादिक़ जी ने किया है। हिंदी अनुवाद से ही इन कविताओं का हम जैसे पाठकों तक पहुंचना संभव हुआ है। इस मसनवी का आवरण चित्र विख्यात चित्रकार सैयद हैदर रज़ा जी का है।
आरम्भिक में प्रो. सादिक़ लिखते हैं, “फ़ारसी और उर्दू में ‘मसनवी’ उस विशेष काव्य विधा को कहा जाता है जिसमें साधारणतः किसी कहानी – किस्से या वाक़िये का बयान होता है”
इस मसनवी के बारे में उनका यह कहना है। ‘चिराग-ए-दैर’ (मन्दिर का दीया) कुल मिलाकर १०८ अश्आर(एक से अधिक शेर) पर आधारित है।अनुमान है कि ग़ालिब ने इससे अधिक अश्आर कहे होंगे लेकिन अपने देशवासियों के समान १०८ के अंक को शुभ और पवित्र मानते हुए १०८ से अधिक हो जानेवाले शेरों को मसनवी में शामिल नहीं किया।”(पृ.१२)
इस विषय पर स्वयं मिर्ज़ा ग़ालिब कौनसा विचार करते थे, यह स्पष्ट रूप से यहां लिखा उपलब्ध नहीं है। फिर भी बात यह कि १०८ अंक शुभ क्यों माना होगा तो कुछ अध्यात्म से जुड़े तथ्य देखना जरूरी होता है। हर धर्म में नामस्मरण की जपमाला के मणियों की एक निश्चित संख्या तय होती है। उस संख्या का विशिष्ट कारण भी होता है। अब यहाँ बनारस हिंदुओं का पवित्र धर्मस्थल होने से हिंदू धर्म की १०८ मणियों की जपमाला पर ही ध्यान अनायास केंद्रित होता है।

हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार सूर्य परब्रह्म है। सारे ग्रह सूर्य की प्रदक्षिणा करते हैं। यह प्रदक्षिणा २७ नक्षत्रों से होकर गुजरती है।हर नक्षत्र के चार चरण होते हैं, तो २७ नक्षत्रों के १०८ चरण होते है।जपमाला का एक-एक मणि नक्षत्र के एक- एक चरण का प्रतिनिधित्व करता है।इसलिए जपमाला मे १०८ मणि निश्चित किए गए हैं। यही संख्या संकेत उपलब्ध है।
इन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसी रोचक सांस्कृतिक तथ्यों से जुड़ी कड़ियाँ मन को हर्षित करती है। जो रचनाकार अपनी मिट्टी से प्रेम और सबको अपना मानते हैं,तथा एक – दूसरे का सम्मान करते हैं, वह सबको इसी कारण सदियों तक प्रिय लगते रहते हैं। यहाँ मिर्ज़ा ग़ालिब की यह विशेषता ‘चिराग़ – ए-दैर’ की हर कविता में दिखाई देती है। मिर्ज़ा ग़ालिब का लिखा एक फ़ारसी अश्आर और उसका हिंदी अनुवाद, हर स्वतंत्र पन्ने पर इस किताब में दिया है। फ़ारसी भी देवनागरी लिपि में दी है। हिंदी अनुवाद भी सार्थकता बनाए हुए हैं।

अनुवादक प्रो.सादिक़ यह कहते हैं, “मैं ‘चिराग-ए-दैर’ को किसी विदेशी भाषा में बनारस पर लिखी गयी पहली कविता मानता हूँ। यह और बात है कि उस दौर में यह भाषा हिंदुस्तान में भी प्रचलित थी और एशिया की सबसे बड़ी और समृद्ध भाषा के रूप में ईरान, अफगानिस्तान और तुर्की आदि देशों में भी प्रचलित थी”(पृ.११)

अब देखा जाये तो फ़ारसी भाषा की जडों को हिंदुस्तान में मजबूत होने का कारण युद्ध, राजसत्ता, व्यापार, सूफियों का आगमन है। वैसे आज के जमाने में भी फ़ारसी भाषा के कितने सारे शब्द भारतीय भाषाओं के मूल रूप में घुलमिल गये है, तो कुछ़ अपभ्रंश होकर स्थिर हो गये है जो एक वास्तविकता ही है। इसलिए फारसी को विदेशी भाषा कहना कितना उचित होगा यह भी सोचनीय बात हो सकती है।

मिर्ज़ा ग़ालिब की यह मसनवी (कविताएं) परिपक्वता, गंभीरता और संतुलन का बेहतरीन संगम है। दिल्ली के गलियारों की यादों को लेकर उनके मन में अजीब अस्वस्थता थी।जो बनारस के प्राकृतिक तथा धार्मिक वातावरण में आल्हादित होकर ठहरतीं हुई नज़र आती है। अपने मन मे उभरती हर संवेदना को सहजता से अभिव्यक्त करना वह भी अश्आर के द्वारा जिनमें कैफ़ियत,गम, दिलासा और सवाल भी उभरते हुए नज़र आते हैं।

यह नौंवा अश्आर देखिये, “मेरा देहली से निकलना ऐसा लगता है कि अपने अंग से दरिया ने मोती आप ही बाहर किया है”
मिर्ज़ा ग़ालिब इस मसनवी के करीब़ पहले २० अश्आर मे देहली से बिछुड़ने के दर्द का इज़हार करतें है।
लेकिन आगे के अश्आर पर उनके इस दर्द पर मरहम बने बनारस का प्रभाव नज़र आता है। मिर्ज़ा ग़ालिब बनारस का धार्मिक और प्राकृतिक रूप मानवीय संवेदनाओं से निहारते हुए,२१ से ७१ तक जो अश्आर लिखते हैं, वह सभी बनारस के बारे में लिखे गए बेहद खूबसूरत अश्आर हैं।
पच्चीसवें अश्आर मे वह लिखते हैं, “सुब्हान अल्लाह! क्या कहने बनारस के!
ख़ुदावंदा बुरी नज़रों को तू/ इससे हमेशा/ दूर रखियो। यह नगर है स्वर्ग/ इस आनन्द कानन को/ सदा आबाद/ और मसरूर रखियो।
बनारस का धार्मिक वातावरण जिसकी प्रशंसा करते अश्आर मिर्ज़ा ग़ालिब लिखते हैं, यह अश्आर सभी धर्मों के प्रति उनके विशाल दृष्टिकोण का परिचय देते हैं। लेकिन बनारस का सौहार्दपूर्ण जीवन, सुंदर नारीयों का वर्णन लिखते समय उनका शायराना अंदाज काफ़ी खिल उठता है।।

यह पचासवां अश्आर देखिये, जो नारियों के बारे में है,“इनके होंठों पर/नज़र आती है/ जो मुस्कान/वो स्वभाव का/ एक अंग है। और/ चेहरों पर/ जो देखों तो/ बहारों से भी/ सुंदर रंग है।

बनारस पर लिखा चौसठवा अश्आर खूबसूरत अंदाज़ मे लिखते हैं, “यह कहना/ तर्क संगत लग रहा है/ कि बनारस/ एक सुंदर/ प्रियतमा है/ जो/ सवेरे- शाम/ करने के लिए शृंगार/ लिए रहती है/ हाथों में/सदा/गंगा का आईना।”
आगे बहत्तरवे अशहर से एक गहन चिंता झलकती है।जो इस दुनिया के बदलाव पर ज्ञानी बुजुर्ग से विचार विमर्श लगता है। यह चिंता हर सदी के संवेदनशील रचनाकार को चिंतित करती रही है। दुनिया की बेदर्दी, नीति का अधःपतन, तबाही का भय यही सब कुछ अंतिम कविताओं में व्यक्त होता है। लेकिन जिस ज्ञानी से यह वार्तालाप होता रहा, वह एक सकारात्मकता का इशारा भी करता है, जो तबाही से दूर रखेंगा।
“मूल कारण/ यह मुक़द्दस शहर है” यह बनारस शहर की तरफ़ किया हुआ इशारा है।
आगे का अस्सी वा अश्आर ऐसा ही है,“परमेश्वर को/खुद नहीं मंजूर/कि सृष्टि का/अप्रतिम/यह सुंदरतम नगर/(काशी) कयामत की वजह से/ नष्ट और/ नाबूद हो जाए।”

बयासवें अश्आर से मिर्ज़ा ग़ालिब अपने यात्रा का मक़सद और परिवार के बारे में, जिम्मेदारी के बारे में लिखते हैं। अपने आप को आगे की चुनौती के लिए तैयार करते हैं।
अंतिम अश्आर अनेक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अपने लिए, सबके लिए समान संदेश दिया गया है। “ला’/ के माने हैं’नहीं’/और अर्थ है/ ‘इल्ला’ का ‘किंतु’/ या अलावा। जोर से/ सतनाम बोलो/ और/ अल्लाह/ईश्वर/परमेश्वर के/है अलावा जो/उसे कर दो स्वाहा।

सभी धर्मों मे आपसी संतुलन बनाए रखने के लिए, तथा एक दूसरे की आस्थाओं का सम्मान केवल वहीं कर सकते हैं, जिनको सृष्टि की रचना का ज्ञान है। वह खूब समझते हैं कि प्रेम, करुणा और मांगल्य की भावना ही इस सृष्टि को जीवित रखने के लिए जरूरी है।

व्यक्तिगत जीवन का दर्द, धार्मिक आस्था, बहुसांस्कृतिक देश की गरिमा, प्रकृति का वर्णन यह सब गंभीरतापूर्वक तो कभी शायराना अंदाज, फिर से दुनिया की तबाही की चिंता इतने सारे भावनात्मक मुद्दों को इस मसनवी मे ( कविताओं ) मिर्ज़ा ग़ालिब वर्णित करते है। कम शब्दों में विचारों की गहनता यह उनके अश्आर की विशेषता यहाँ मन को मोह लेती है।
मिर्ज़ा ग़ालिब की यह मसनवी उस जमाने में लिखी है, जब अंग्रेजी हुकूमत इस देश को गुलामी की जंजीरों से जकड़ चुकी थी। ऐसे समय में एक जिंदादिल शायर धार्मिक स्थलों का चिरंतन अस्तित्व रहने की उम्मीद कर, तबाही का डर दूर करता है। यह सब उस समय की दास्तां से जुड़ी हक़ीक़त भी थी।हमेशा रचनाकार का विश्वास चिरंतन वैश्विक मानवी मूल्यों पर होना चाहिए, यह कितना सार्थक संदेश इस मसनवी से (कविताओं) मिर्ज़ा ग़ालिब देते है, जो आज भी प्रासंगिक है।

चिराग़-ए-दैर (बनारस पर केंद्रित कविताएं)
मूल फ़ारसी : मिर्ज़ा ग़ालिब
हिन्दी अनुवाद : सादिक़
रज़ा पुस्तक माला,प्र.सं.2020, मूल्य:150/-, पृ.सं.124
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.

2 COMMENTS

  1. ऐसी समीक्षा जीवन में पहली बार पढी है। इसके लतिका जाधव जी को बहुत बहुत बधाई। मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी को तो सभी बेहद पसंद करते हैं लेकिन उन्होंने किसी शहर पर कुछ लिखा होगा यह तो पता ही नहीं था।
    प्रो. सादिक साहब का जितना आभार माना जाए, उतना ही कम है।
    अंत में प्रधान संपादक श्री सोनी जी को धन्यवाद कि वे इतनी रचनाओं को प्रकाशित करते हैं।

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