

लघुकथा-
कन्या पूजन
“सुनिए! मैने कल कन्या पूजन के कार्यक्रम का मन बनाया है। अगर, आप कल की छुट्टटी ले लें तो मैं आज सभी तैयारी पूरी कर लूं?”
“हाँ-हाँ! क्यो नहीं। मगर, इसमें मेरी क्या जरूरत है? आवश्यकतानुसार, आज तुम शापिंग कर लो। जो भी खर्च आए मुझे फोन कर देना। मैं “फोन पे” से पेमेंट कर दूँगा।”
“वो सब तो ठीक है! लेकिन, कल की छुट्टटी तो आपको लेना ही पड़ेगी।”
“यार! ये महिलाओं के कार्यक्रम में मुझे मत घसीटा करो। तुम्हें जो करना है करो। बस, मुझे बक्श दो। मैं धर्म से ज्यादा कर्म पर विश्वास करता हूँ। तुम्हारे इस आयोजन से परिवार को क्या लाभ होगा, ये तो पता नहीं। परंतु, मुझे एक दिन का नुकसान अवश्य हो जाएगा।”
“इसका मतलब मैं परिवार में कोई धार्मिक, सामाजिक अनुष्ठान न किया करूँ?”
“यार! तुम समझती क्यों नहीं? मैने ऐसा तो नहीं कहा।”
“समझ तो आप नहीं रहे। पूजन को लेकर नुकसान की बात कर रहे हैं। अगर, आपकी तरह नफे-नुकसान का आकलन सभी ने कर लिया होता तो समाज में घर-परिवार का कोई वजूद ही नहीं होता। फिर तो आप जैसे लोग खुद ही कुआं खोदते और खुद ही अपनी प्यास बुझाते!”
–सतीश चंद्र श्रीवास्तव
भोपाल(म.प्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
