काव्य : मां कात्यायनी – किरण काजल बेंगलुरु

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मां कात्यायनी

वर दे मां कात्यायनी
अमोघ फलदायिनी
बुद्धि शांति स्वरुपा
बृजमंडल की अधिष्ठात्री
गोपियों की पुकार सुनती
सिंह वाहिनी कमल शोभिनी
मन के सारे विकारों को हर के
मां नव बुद्धि प्रदान है करती
शक्ति स्वरूपा
मां जग जननी जगदम्बा
मधु और पान जिनको है अति प्यारा
लाल चुनरिया ओढ़ कर मैया
करती सदा भक्तों का प्रतिपाला
कल्याणी कहलाती मां दया निधान
सबकी सुनती हो मैया
मां मेरी भी सुन लो ना
अपने ममता की छांव में
क्षण भर को रहने दो ना
मां तेरे स्नेह की भूखी हूं
पल पल ही जल रही हूं
मैं ना जाऊंगी तेरे द्वार से खाली हाथ
बड़ी आस से तेरे द्वार तक आई हूं
मनोकामना पूरी कर दे
जीवन में खुशियां भर दें
ज्योत जलाऊंगी सारी रात
अगर कपूर से थाल सजा कर
आरती गाऊं मां करके धमाल
छल से भरा है जग सारा
पल पल डरता है हृदय प्यारा
कोमल मन पे ना जाने
कितना है आघात लगा
मानव बन बैठा है दानव
मां अब तो तू शस्त्र उठा
दानवों को सबक सिखा
धधक रही है संपूर्ण सृष्टि में
पाप ही पाप की अग्नि ज्वाला
बुझता नहीं यहां प्यास किसी का
अपने ही अपने को हे मां यहां लुटते है
देकर वास्ता रिश्तों का लहू चुस रहे है
बुद्ध जीवी सब सुन्न पड़ें है
मुर्ख अज्ञानी ताण्डव कर रहा
फैला दो धर्म का उजियारा
दिखा दो मां रुप अति प्यारा
दानवों का करों मां विनाश
अब तो बहा दो मां पवन
शांति और सुखों वाला….!!

किरण काजल
बेंगलुरु

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