काव्य : मां चंद्रघंटा – किरण काजल बेंगलुरु

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नवरात्री के तृतीय दिवस

मां चंद्रघंटा

“हे सिंह वाहिनी कमल आसनी”
भवभयहारीणी मंगलकारीणि ,
सुन लो मेरी पुकार मैं आई तेरे द्वार !!

निर्मल मन के दर्पण में दर्शन का ख़्वाब सज़ा दे
मैं हूं बेटी तेरी नादान मां मेरे सोए भाग जगा दे।।

दर्शन की अभिलाषी हूं खाली हाथ ही आई हूं‌।
श्रद्धा सुमन अर्पित कर अपना जी बहलाती हूं।।

सुन कर तेरी जय जयकारा पहाड़ों वाली माता।
जाने कहां कहां से तेरे दर पे नर नारी है आता ।।

नजरों से तेरे हे माता कहां कुछ है छुप पाता ।
फिर मेरी बिगड़ी बनाने में क्यों देर लगती हो माता”

हूं अति निर्धन गुणहीन लाचार और बेसहारा ।
बस चाहती है किरण तेरी कृपा ओ जग माता ।।

तुझ बिन कौन सुने दुख मेरी मैं दासी हूं मां तेरी ।
एक नज़र देख ले तो संवर जाए मेरी भी जिंदगानी।।

ये जग तो है बड़ी अनोखी अलबेली ।
भाता नहीं यहां किसी को कभी कोई ।।

हर इंसान यहां अकेला है पर लगता बड़ा मेला है।
न जाने कैसा ये जन्म मरण का ,
सदियों से चल रहा झमेला है।।

मां कर दे तू कृपा बस इतनी मुक्त हो जाए सारा जग ही।
छुट जाए फिर ये जन्म मरण का फेरा होगा उपकार तेरा।।

बड़ी दूर से आई हूं आश भी लगाई हूं ।
दे दो दर्शन सफल हो जाए ये जीवन।।

किरण काजल
बेंगलुरु

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