

लघुकथा
कलश स्थापना
सुनो,‘माँ जी को दीदी के घर छोड़ आओ।’
“क्यों?”रितेश ने अपनी पत्नी से पूछा।
कलिका बोली “सोच रही हूँ इस वर्ष माता रानी का कलश बैठाऊँ ।”
रितेश-“तो !और अच्छी बात है ,ना।माँ रहेंगी तो तुम्हें भी सहूलियत होगी और माँ को भी मन लगेगा।”
“अरे!समझ नहीं रहे हो तुम।माँ जी के कमरें में ही माँ की स्थापना करूँगी और तो कहीं जगह नहीं है।”
बात ,माँ को सुना कर कही गई थी।
माँ ने भी बच्चों का मन रखने के लिए कहा “बेटा!सोच रही हूँ प्रभा बेटी के घर दो चार दिनों के लिए हो आऊँ।”
“ठीक है माँ!शाम को चलेंगे।”
“अरे!नहीं आज तो बुधवार है,तुझे ऑफिस से आते देर हो जाती है।शनिवार को तुम्हारी छुट्टी रहेगी तब ले चलना।”
कलिका तपाक से बोली “नहीं ,माँ जी !आज हॉफ डे कर लेंगे।”
पुष्पा जी,डूबते सूरज की मद्धिम लालिमा और सागर के ऊँचे उठते लहरों को तट पर थपेड़ों को निहार एक गहरी साँस भर कर बैग में दो चार साड़ियाँ रख बॉलकनी में बैठ गई।संदूक को खंगाल कर जुटाए हज़ार रुपये ,पुष्पा जी ,ने कलिका को बुला कर उसके हाथ में धर दिए ,लो बहू!माता रानी की सेवा में कोई कमी नहीं करना।”
प्रभा ,माँ को अचानक आए देख बोली भैया!”बहुत अच्छा किए माँ को ले आए।माता रानी ने मेरी इच्छा पूरी कर दी।प्रतिमा पूजन से पहले साक्षात माँ मेरे घर आ गई।”
–सविता गुप्ता
राँची झारखंड

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
