

लघुकथा-
तुम तक जाने की राह
सर्दियां धीमे-धीमे विदा ले रही थीं,,अब मौसम में उतनी ठंड नहीं थी, केवल उसका अहसास बाकी था,, फरवरी के महीने में अक्सर हल्की ठंड के साथ साथ फूलों का खुशनुमा मौसम दस्तक दे रहा होता है,,
रानी चुपचाप खेतों की मेड़ पर बैठी हुई अपने आप में ही कहीं गुम थी,वह रोज ऐसा ही किया करती थी, घर के सारे काम निपटा कर,अम्मा जी और बाबूजी के आराम के लिए ओसारे में चले जाने पर, यहां खेतों की ओर चली आती,थी,चारो ओर फैले खूबसूरत सरसों के खेतों में फैली हरियाली को देखकर उसे अपने पति रामसिंह की याद आती थी,वह इन खेतों को देखकर बहुत खुश होता, और उसके पीले दुपट्टे को लहराते हुए कहता**देख रानी,, सरसों के पीले फूल मुझे तेरे पीले दुपट्टे जैसे ही लगते हैं, यहां से वहां तक फैले हुए,,ये मुझे वहां ऊंचे पहाड़ों पर बर्फीले तूफान के बीच भी बहुत याद आते हैं,,तब मन को बहुत सुकून मिलता है,,इस बार जब फरवरी की गुलाबी सर्दियों में आऊंगा तो ढेर सारे फूल अपने साथी जवानों के लिए भी ले जाऊंगा,, और तुझे भी पहाड़ों की सैर पर ले जाऊंगा,देखना कितनी ठंड पड़ती है वहां**
रानी बस चुपचाप मुस्कराते हुए उसे देखती रहती,अभी साल भर पहले नया नया ब्याह हुआ था उसका,,वे रात भर जाग कर बातें करते रहते, हल्की ठंड वाली फरवरी की रातें, बसंत की अगवानी करती, और खुशबुओं के परों पर तैरते से ,वे दिन तो जैसे पंख लगा कर बहुत जल्द ही उड गये और शादी के छह महीने बाद ही रामसिंह ड्यूटी पर चला गया,, और रानी अकेली हो गई, सुदूर पंजाब के सरसों के पीले खेतों से निकल कर उसकी यादें ठंडे पहाड़ों पर पहुंच जाती थी,, जहां वह अपनी सोचों में रामसिंह के साथ पहाड़ों से एक नया रिश्ता बना रही होती,,, दुश्मनों की बरसती गोलियों के बीच खंदकों में छिपे जवानों के साथ उनके सुख दुख बांटती,,, बाजार में शाहजी की दुकान पर लगे कैलेंडर की लड़की की तरह वह भी पीले पीले फूलों की टोकरी उठाए,,शाल का एक सिरा दांतों में दबाए,, जवानों को फूल बांटती,,उसका यह मोहक सपना जल्दी ही टूट जाता जब अम्मा उसे ही पुकारती हुई खेतों तक चली आती थी,*रानी,ओ रानी,चल कुड़िए,,चल बेटा,,शाम हो चली है*
*आई अम्मा,, और वह अम्मा के हाथ थामे हुए घर लौट आती थी,,,यह सिलसिला जारी रहता था,, लेकिन इधर कुछ दिनों से उसे रामसिंह की बहुत याद आ रही थी,,उसका जी चाहता था कि सामने खेतों के पार बहती सतलज नदी को पार कर उस पार पहुंच जाए,,बस पकड़ कर अपने रामसिंह के पास पहुंच जाए, पर यह संभव नहीं था,,सब कुछ अनजाना अनदेखा सा था,, उसके और रामसिंह के बीच गुलाबी ठंड वाली फरवरी की रातें,,,सरसों के पीले खेत,सतलज नदी और पहाड़ थे,उसकी जिंदगी में दूर दूर तक फैले हुए,,
उसे आज भी वो दिन याद है जब उसके सुहाग रामसिंह के लापता होने की खबर मिली थी,,
उस दिन न जाने क्यों अनमना सा महसूस हो रहा था, पर क्य़ो,रानी समझ नहीं पा रही थी,,एक अनहोनी की आंशका उसे डराती रहती थी इन दिनों जब से कुछ जवानों के साथ घटी बुरी घटनाओं के बारे में पता चला कि आधी रात को दुश्मन अचानक घुस आए,,, और गोलियों से भून दिया,,,रानी ये सब भुला देना चाहती थी, लेकिन मन की उदासी का क्या करें !!!तभी पड़ोस की गुड्डो दौड़ी आई**भाभी जल्दी चलो, फौज से कोई आया है,,*रानी खेतों में दौड़ लगाती भागती चली गई,, शायद रामसिंह आ गया”पर सामने कुर्सी पर बैठे दूसरे जवान को देख कर ठिठक गयी,,बाबूजी चुपचाप चौकी पर सिर झुकाए हुए बैठे थे,, मां उसे देख कर गले से लगा लेती हैं,बिलख उठी मां,,*रानी तेरा रामसिंह लापता हो गया है, सेना उसे तलाश करने में जुटी है,,ये क्या हो गया बेटी,,,*
रानी कुछ बोल नहीं सकी, चुपचाप सबको देखती रही,, फिर जोर से विलाप कर उठी*कहां गया मेरा रामसिंह,,बोलो न वीरजी,,आप सच सच बोलो,,*
*हम तलाश कर रहे हैं बहन,उम्मीद है कि वह मिल जाए,,आगे की रब जाने**
उस दिन के बाद से न रामसिंह लौटा न उसकी कोई खबर आई, लेकिन रानी का इंतजार खतम नहीं हुआ,आज भी वह खेतों में जाकर कुछ देर यादों में खो जाती है,पीले सरसों के फूलों को बड़े जतन से सहेज कर डिब्बे में रखती है,उसका मन अपनी कल्पना में सतलुज नदी को पार कर बस से पहाड़ों पर पहुंच जाना चाहता है, रामसिंह के साथ पहाड़ों की शीतलता को महसूस करना चाहता है,, पर वह जानती है कि ऐसा नहीं हो सकता,यह इंतजार लंबा है शायद फौज में काम करने वाले हर फौजी की पत्नियां ये लबा इंतजार करती रहती है,यही उनकी नियति है शायद,, फरवरी की सर्दियां बीत रही थी,,पीले लाल फूलों से खेत भर गये थे,,रानी का पीला दुपट्टा एक बार फिर,,,उसके आंसुओं से भर गया था,,,,
–पद्मा मिश्रा
जमशेदपुर

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
