

लोककला सांझी :
“..सांझी साँझनहार,कनागत हुए परले पार
कोये देखण चालो हे, आया सांझी का लनिहार..”
तरह तरह के लोकगीत गाकर साँझी को बेटी स्वरूप में मायके आने की खुशी में भित्तिचित्र बना सजाई जाती है। याद रहा है बचपन कितने मन से मिट्टी को मथ मथ कर चिकना किया जाता था ।तालाब से चिकनी मिट्टी ढूंढकर निकाली जाती थी। फिर करीब पंद्रह दिन पहले से साँझी के जेवर बनाने के लिए गोने (मोती) बनाये जाते थे। जिनसे साँझी के गले नौलख हार , हाथ में पोंहची और पैरो में रूनझुन पायल सजाई जाती थी । फिर इन गानों को सुनहरी रंग और मिरगान से सजाया जाता। तो असली सोने जैसे जेवर लगने लगते थे।
सांझी के इन भित्तिचित्रों में लोक के विविध पक्ष दृष्टिगत होते हैं चाँद, सूरज, तारे ,पेड़ ,चिड़ियाँ, सीढ़ी
प्रकृति हमारी वास्तविक माँ की जैसी है, जो हमें कभी नुकसान नहीं पहुँचाती, अगर हम उसे नुकसान ना पंहुचाये तो वह हमारा पालन-पोषण ही करेगी । तो हमारा भी फर्ज बनता है की हम प्रकृति की पूजा करे और हर बदलते मौसम के स्वागत में प्रकृति का आह्वान करें। इसको स्वच्छ और सुन्दर रखें, जो नवरात्रो के दौरान हम प्रकृति से नाता जोड़ लेते हैं जिसमें सात्विक और हल्का भोजन करते है। प्रकृति की हर चीज में कुछ ना कुछ अद्भुत और उपयोगी जरूर होता है।जिसे साँझी की झाँकी में सजाया जाता है दर्शाया जाता है। हमारे चारो ओर का आवरण पर्यावरण ही प्रकृति है, जिसमें पेड़ पौधे, नदी, झरने, पर्वत, बारिश, जंगल, सूर्य, चाँद तथा मानव भी प्रकृति का ही हिस्सा है । प्रकृति ईश्वर एक ही बात है, कलाकार अपनी कला के माध्यम से मिट्टी को माँ स्वरूप प्रकृति स्वरूप में मूर्ति गढ़ता है।
लोक कला मनुष्य के लिए एक अनमोल उपहार के रूप में मिला आशीर्वाद ही होता है ।साँझी माँ के जेवर मिट्टी से सोलह श्रृंगार में ढ़ली प्रतिमा लगने लगती है कि जैसे अभी बोल पड़ेगी। साँझी के भित्तिचित्रों के माध्यम से आप अनुमान कर सकते हैं कि लोक में अभी भी सांझी बनाने की परम्परा जीवित है, यद्यपि बदलाव अवश्य हुए हैं। फिर भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लोककला सांझी को अनुभूत करना सचमुच दैवीय अनुभूति है। लोक जीवन को लोक कलाकार कैसे कैसे अपनी भावनाओं और कलप्नाओं को समाहित कर मिट्टी में ढ़ालता है। और एक साक्षात प्रतिमा सन्मुख खड़ी कर उसकी नौ दिनों तक पूजा अर्चना करता है।
मगर अफसोस पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इस लोककला को आज बाजार वाद ने लील लिया है
एक लोक गीत जिसे अपने बचपन में गा गाकर हम अपने सभी घरों (यानि ताऊ चाचा सभी ) में साँझ दिया बाती के समय आता करने जातीं थी।वही गीत यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ।
“साँझी तो माँगे हरा हरा गोबर”
कहाँ से मैं लाऊँ साँझी, हरा हरा गोबर
तेरा री बीरा लहंडे का पाली (चरवाहा)
वहीं से ही ला बीबी हरा हरा गोबर
साँझी तो माँगे डलडी भर गहना
कहाँ से री लाऊँ साँझी, डलडीभर गहना
तेरा री बीरा सुनरा के बैठा
वहीं से ही ला बीबी डलडीभर गहना
साँझी तो माँगे लंहगा चुनरी
कहाँ से मैं लाऊँ साँझी, लंहगा चुनरी
तेरा री बीरा बजाज के बैठा
वहीं से ही ला बीबी लंहगा चुनरी
साँझी तो माँगे मडकना जूता
कहाँ से मैं लाऊँ साँझी, मडकना जूता
तेरा री बीरा मौची के बैठा
वहीं से ही ला बीबी मड़कना जूता
– सुनीता मलिक सोलंकी
मुजफ्फरनगर उप्र

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
