काव्य : मात पिता की छांव – डी सी भावसार भोपाल

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मात पिता की छांव

आज वीराने से जब गुज़रा,
तेज बारिश ने घेर लिया ।
नहीं आया कुछ नज़र ,
जो छुपा ले मुझे ,बचा ले मुझे ।
बारिश के तेज थपेड़ों से ,
आंधी – तूफ़ान के साथ गिरती बारिश से ।
और मैं पस्त हो गया ,
निढाल होकर गिर गया ।
तब याद आया मुझे ,
वो बचपन ,आज से चार-पांच दशक पहले का ।
जब स्कूल जाते ,
बारिष ने यूँ ही घेरा था ।
और कहूँ तो आज से ज्यादा,
अनबरत मूसलाधार बारिष ने ।
पर तब मुझे मिला था ,
एक दरख़्त बरगद का ।
और में छिप गया था उसके नीचे ।
एक आशियाने की तरह ।
और हाँ एक साया भी तो था,
मेरे पिता का ।
जो हर पल साथ था ,
एक शीतल छांव ,एक ठाँव की तरह ।
आज न पिता हैं ,
न वो बरगद से घने दरख़्त ।
छुपाऊँ भी तो कहाँ !
बस नियति के साथ चल रहा हूँ,
बेबस होकर !
काश हम घने दरख्तों को पोषित करें ,
संजोयें, सवांरे ।
और सवांरे घनी छाया से ,
अपने माता-पिताओं को ।
जो कदाचित छांव देते थे ,
आज तरसते हैं ख़ुद छांव को ।

डी सी भावसार
भोपाल

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