लघुकथा : ईंट – अनिता रश्मि रांची, झारखण्ड

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लघुकथा

ईंट

शिक्षक रामदास ने आज डायरी के वे पन्ने खोले, जो घर से जुड़े थे।

20/4/1950
मैंने बड़े शौक़ से घर बनाया। पुराने खपरैल घर में एक-एक ईंट जोड़कर उसे नए आशियाने की शक्ल थमाई। बाबूजी भी खुश हैं कि ढहते घर को बचा लिया। परिवार के बीसों सदस्य भी संतुष्ट। सबको सर छुपाने के लिए स्थाई छत मिली। घर मजबूती के साथ खड़ा हो गया।
साथ में दोनों बच्चे थे तो काम आसान हो गया। मेरे संग बच्चों ने भी ईंटों को पानी पिलाया था।

18/8/1970
बहुत दिनों तक मजबूती के साथ खड़ा भी रहा था हम सबका मकान, हम सबके साथ।
लेकिन अब बेटों को घर बेहद बूढ़ा लगने लगा था। अंततः बच्चों ने घर की एक-एक ईंट बेच दी और पैसे आपस में बाँट लिये।

25/6/1975
अब दोनों बेटे अपना-अपना घर बना रहे हैं, नई ईंट से ईंट जोड़कर। उसके लिए दोनों ने ईंट से ईंट बजा दी थी। भाई-बहन तो पहले ही छोड़ गए थे। बेटों को मेरा तनिक ध्यान नहीं। अब तो बस, यही आसरा है – आशियाना वृद्धाश्रम!

अनिता रश्मि
रांची, झारखण्ड

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