पितृपक्ष का दान भाव,तब और अब – ममता श्रवण अग्रवाल सतना

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पितृपक्ष का दान भाव,तब और अब

,,आज जब हम सभी हिंदू भाई बहन पितृपक्ष मना रहे हैं तब हमारी नई पीढ़ी हमारे समक्ष बहुत सारे प्रश्न लेकर खड़ी हो जाती है कि इन सभी क्रियाओं या मान्यताओं मेंं कितना सत्य है या ये कितनी औचित्य पूर्ण हैं और यह आज से ही नही सदियों से होता आया है कि नई पीढ़ी ने पुरानी मान्यताओं पर सवाल उठाए हैं और फिर नई और पुरानी दोनों ही पीढियां मिलकर पुरानी व्यवस्था में ही एक नई सोच को जोड़ देती है चाहे यह बात हमारे पहनावे में हो, चाहे हमारे रसोई के चूल्हे के प्रति हो ,चाहे वैवाहिक परम्पराओं में हो या फिर चाहे कोई सामाजिक अन्य गतिविधियों में हो पर समय समय पर परिवर्तन अवश्य हुआ है और यही बात आज के विषय यानी *पितृपक्ष* के प्रति भी हो रही है…
पितृपक्ष की हमारी पौराणिक अवधारणा अपने आरंभिक काल में बहुत सही थी जब हमारे समाज में ब्राह्मण वर्ग भिक्षा और दान पर आश्रित था तब सभी के कल्याण भाव को ध्यान में रखते हुए सभी के लिए कुछ मापक तय किए गए थे जैसे कि ब्राह्मण को वेदपाठी मान उन्हें दान का अधिकारी माना गया , क्षत्रिय को रक्षक मान उन्हें सम्मान दिया गया,वैश्य को धन पूर्ति करने वाला मान उन्हें दाता माना गया और शुद्र को सेवक मान उन्हें सभी का सेवक और सभी को उनका पालक बनाया गया और ये दायित्व उसकी योग्यता के आधार पर सौंपे गए थे और पुरानी मान्यता में कौवे को मुंडेर पर भोजन देना भी औचित्यपूर्ण है क्योंकि इनकी बीट से ही वट वृक्ष पल्लवित होते हैं और वो इसी माह में ज्यादा होते हैं ।
इस प्रकार यह पौराणिक सोच भी कल्याणकारी थी जो पितृपक्ष में ही की जाती है और साथ गाय, कुत्ते, निर्धन को भोजन देना भी कल्याणकारी था जो मृतक को शांति दे या न दे पर जीवित को तो जीवन देते ही थे ।
इस प्रकार अब बात यह विचारणीय है कि पूर्व में हमने अपनी सोच में जरूरत मंद से ज्यादा विशेष वर्ग (ब्राह्मण) पर अपनी दया दृष्टि ठहरा दी जो अब सही नही हैं क्योंकि अब सारी सामाजिक वर्ण व्यवस्था बदल गई है और न ही कोई शुद्र है न कोई वैश्य न कोई क्षत्रिय और न कोई ब्राह्मण यानी सभी वर्ग ,सभी कार्य को कर रहे हैं तब ऐसी स्थिति में सामाजिक व्यवस्था में भी बदलाव होना चाहिए और लोग कर भी रहे हैं।
अब यह आवश्यक नहीं रहा कि ब्राह्मण वर्ग दान पर ही आश्रित हैं या शुद्र वर्ग अभिजात्य वर्ग की कृपा पर और अब यही कारण है कि थोड़ा जागरूक नई पीढ़ी इन मान्यताओं को मानने से पीछे नहीं हट रही बस वो अब थोड़ा समय के साथ कार्य में बदलाव कर रही है जैसे कि मृत्युपरांत दिए जाने वाले विभिन्न प्रकार के दानों को आज की दृष्टि से तय कर रही है जैसे कि शैया दान जो मृतक के प्रति मोक्ष भावना से दिया जाता है , उसमें विविध भांति की वस्तुओं के एक ही व्यक्ति को दान देने के बदले वो कोई ऐसा सामाजिक कार्य करना चाहती है जिसमें बहुत लोगों का हित हो सके और वो अब अस्पतालों में डीप फ्रीजर( शव सुरक्षा मशीन)या फिर रोगियों के लिए पलंग या अन्य सुविधाएं देना चाहती हैं जैसे अस्पतालों में स्वच्छ पानी की व्यवस्था करवा देना या मरीजों व उनके परिजनों के भोजन की व्यवस्था अपनी सुविधानुसार करवा देना आदि आदि..
यहां हमारी नई पीढ़ी और नई सोच को ब्राह्मणों को दान देने से कोई परहेज नहीं है बस उन्हें हमारे धन और वस्तुओं की आवश्यकता और उपयोगिता हो…
इस प्रकार पहले भी पितृपक्ष में कल्याण का ही भाव था और अभी भी कल्याण का ही भाव है बस रूप बदल रहा है ।
इसी तरह अब लोग वस्तुओं के दान की बात का नवीनीकरण तो हुआ ही है साथ ही अब लोगों की उदात्त सोच उन्हें नेत्र दान या अंगदान के साथ साथ देहदान की ओर भी प्रेरित कर रही है जिसमें भी अभी कुछ लोगों की सोच इस बात को स्वीकार नहीं कर रही है पर वे यह क्यों भूल जाते है कि हमारी इसी भारत भू में *दधीचि भी तो हुए हैं जिन्होंने* *कल्याण के लिए* *अपनी अस्थियां* *दान कर दीं थीं* और इस प्रकार जब हम अपने धर्म ग्रंथों का बारीकी से अध्ययन करते हैं तब बहुत सारे प्रश्न स्वयं सुलझ जाते है जैसे कि हमारी यह प्राचीन मान्यता कि कोई कितना भी पापी हो उसे गंगा जी के जल स्पर्श से मुक्ति मिल जाएगी , कही से भी औचित्य पूर्ण नहीं है ।
आप स्वयं देखें कि द्वापर काल में भीष्म पितामह जो स्वयं गंगा पुत्र थे उन्हें अपने पूर्व जन्म में जब उन्हें सप्त ऋषियों के साथ इंद्र सभा में श्राप लगा था , उसे भोगने में उनका सारा जीवन व्यतीत हो गया जबकि वो तो गंगा पुत्र ही थे तब हम जैसे साधारण व्यक्ति को केवल गंगा स्नान से कैसे मुक्ति मिल सकरी है चाहे जीवित या फिर मृत कैसे भी…
अंततः यही कहना चाहूंगी कि समाज की प्रत्येक गतिविधियां समय के साथ अपना स्वरूप बदलती ही हैं और वो ही मान्यताएं आगे तक जाकर समाज में अपना स्थान बना पाती हैं जो समय की धारा के साथ चलती हैं।
इस प्रकार हमें अपने धर्म को छोड़ना नहीं है पर समय के साथ इन्हे परिमार्जित करते हुए इनका ही आधार लेकर आगे बढ़ना है

ममता श्रवण अग्रवाल
साहित्यकार सतना

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