आर्थिक असमानता – कर्मेश सिन्हा दिल्ली

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आर्थिक असमानता

आर्थिक असमानता एक ऐसी समस्या है जिस से दुनिया का कोई भी देश अछूता नहीं है। विकसित देश, विकासशील देश, अमीर देश,गरीब देश, पिछड़े देश,अति पिछड़े देश सभी अपनी आर्थिक उन्नति की यात्रा के दौरान हर काल खंड में इस समस्या से ग्रस्त रहें हैं। यूँ तो इसे मापने के कई माध्यम हैं, किन्तु हम दो मानकों का वर्णन करेंगे। पहला, देश की जनसंख्या के उच्चतम 10 प्रतिशत जनता का राष्ट्रीय आय में कितना भाग है तथा दूसरा, जनसंख्या के निम्नतम 10 प्रतिशत जनता को राष्ट्रीय आय में से कितना प्रतिशत प्राप्त होता है। अमीर देशों में उच्चतम 10 प्रतिशत जनता के पास कुल राष्ट्रीय आय का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा होता है जबकि निम्नतम 10 प्रतिशत जनता को कुल राष्ट्रीय आय का सिर्फ़ 5 से 7 प्रतिशत भाग मिलता है। यह तुलनात्मक आंकड़ा ग़रीब देशों में इस दूरी को और अधिक बढ़ा देता है। उच्चतम 10 प्रतिशत जनता कुल राष्ट्रीय आय का 50 प्रतिशत प्राप्त करती है और निम्नतम 10 प्रतिशत जनता के हाथों में केवल 2 या 3 प्रतिशत राष्ट्रीय आय आती है।
अतः हम देखते हैं कि सभी देशों में शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी का कुल राष्ट्रीय आय के बड़े भाग पर अधिकार रहता है तथा निम्नतम 10 प्रतिशत जनता को एक छोटे से भाग पर गुज़ारा करना पड़ता है। यह बात अमीर और गरीब दोनों देशों पर समान रूप से लागू होती है। मगर समस्या केवल दोनों तबकों की हिस्सेदारी तक सीमित नहीं है। वास्तविकता यह है कि दोनों पक्षों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है,अर्थात अमीर और तेज़ी से अमीर होते जा रहे हैं तथा ग़रीब और तेज़ी से ग़रीब होते जा रहे हैं ।
इस समस्या के कारण समाज के विभिन्न वर्गों और विशेष तौर पर उच्चतम और निम्नतम वर्ग के सदस्यों के बीच वैमनस्यता भी बढ़ती जा रही है। इस का एक दुष्परिणाम यह भी है कि निचले वर्ग के कुछ सदस्य विशेषत: युवा पीढ़ी के लोग कुंठा का शिकार हो रहे हैं। बदकिस्मती से यह कुंठा फलीभूत हो कर अपराध के रूप में हमारे सामने आ रही है। आर्थिक रूप से संपन्न देशों में भी बीच-बीच में ऐसे निम्न आय वर्ग के क्षेत्र पाए जाते हैं जो अपराध के लिए कुख्यात गढ़ होते हैं।
हक़ीक़त यह है कि इन इलाक़ों में अपराधियों को आश्रय प्राप्त होता है। आर्थिक विषमता का शिकार होने के कारण इस वर्ग के कुछ सदस्यों को लगता है किसी से कुछ छीन लेने में कुछ भी अनैतिक नहीं है।
दुनिया के सभी देश इस समस्या से जूझ रहे हैं। इस समस्या के समाधान हेतु सभी सरकारों ने लगभग एक जैसा ही रास्ता अपनाया है। यह रास्ता है अमीरों पर कर लगाना। इस से सरकार को जो धनराशि प्राप्त होती है उसका प्रयोग कर के निम्न वर्ग के सदस्यों की हर प्रकार से सहायता की जाती है। इसके पीछे अर्थशास्त्र के उपयोगिता के ह्रासमान के नियम का हवाला दिया जाता है। सरल शब्दों में कहा जाए, तो यह तर्क दिया जाता है कि एक आमिर व्यक्ति से यदि सौ रुपये कर के रूप में ले लिए जाएँ तो उसकी आर्थिक स्थिति में कोई ख़ास फर्क़ नहीं पड़ेगा क्योंकि सौ रुपये की उपयोगिता उसके लिए बहुत कम लगभग नगण्य है। किंतु यही सौ रुपये यदि किसी ग़रीब को मिल जाएँ तो उसकी आर्थिक स्थिति में निश्चित ही महत्वपूर्ण सुधार हो जाएगा, क्योंकि इन सौ रुपयों की उपयोगिता उसके लिए बहुत अधिक है। उसकी क्रय-शक्ति में इजाफा हो जाता है जिससे वो अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाता है। प्रचलित लोक कथाओं का लोक प्रिय नायक राबिन हुड भी कुछ इसी तरह से समाज की सेवा करते हुए नज़र आता है जब वो अमीरों से लूटे हुए धन से ग़रीबों की यथाशक्ति आर्थिक सहायता करता है।
किन्तु इस तरह से उच्च अमीर वर्ग और ग़रीब निम्न वर्ग के बीच की खाई को पाट पाना, लेखक के अनुसार ना तो नैतिक है, ना व्यावहारिक है और ना ही तर्कसंगत है। ऐसा करने के उपरांत अधिकांशत यह देखा गया है कि दोनों वर्गों के बीच वैमनस्यता और असहिष्णुता और ज्यादा विकराल रूप ले लेती है। उच्च वर्ग को धीरे धीरे यह एहसास होने लगता है कि निम्न निर्धन वर्ग के पालन-पोषण का भार उस पर लादा जा रहा है। दूसरी ओर निर्धन निम्न वर्ग को सदा यह मुगालता रहता है कि उसके श्रम से अर्जित किए गए लाभ में से बेईमानी कर के अमीर वर्ग ने एक बड़ा भाग हाथिया लिया और उसका शोषण किया है। ( साम्यवाद ने हर देश में इसी तर्क का सहारा ले कर इन दोनों वर्गों के बीच की खाई को चौड़ा करने का काम किया है। अत: इस स्थिति में बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है कि “सरकार को क्या और कैसे करना चाहिए?”
आर्थिक उन्नति के पथ पर अग्रसर होते हुए विभिन्न देशों से प्राप्त साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि क्रय-शक्ति का उच्च अमीर वर्ग से निर्धन निम्न वर्ग की ओर हस्तांतरण से इस समस्या का हल नहीं किया जा सकता। अतः सरकारों को इस से पार पाने के लिए किसी नए रास्ते की तलाश करना आवश्यक है। सरकारों को कुछ ऐसे कदम उठाने चाहिए जिस से निर्धन निम्न वर्ग की अपनी आय में वृद्धि हो सके। प्रत्येक देश की सरकार को कुछ ऐसा करना चाह जिस से इस वर्ग की आर्थिक स्थिति में कम समय में सुधार हो। अधिकांश देशों में सरकारी या ग़ैर सरकारी क्षेत्रों में रोजगार के अवसर आशानुरूप नहीं बढ़ रहें हैं अतः आर्थिक स्थिति में सुधार हेतु छोटे उद्यम तथा स्वरोजगार के क्षेत्रों में सरकार को यथा संभव प्रयास करना चाहिए। स्वरोजगार रोजगार का वो ढ़ाचा है जो अमीर पूंजीपतियों पर निर्भर नहीं रहता है। उदाहरण के लिए सेवा क्षेत्र संबंधी रोजगार, जिसमें छोटे दुकान दार, बीमा, दूर संचार,यात्रा टिकट कम्प्यूटर मोबाइल फोटो स्टेट इत्यादि सेवाओं में रोजगार पैदा करने की अपार क्षमता होती है। इसी प्रकार अन्य सेवाएँ जैसे पेंटर,बढ़ई, लुहार, केश सज्जा इत्यादि भी बिना अधिक निवेश और शैक्षिक योग्यता के आय अर्जित करने के अच्छे स्त्रोत हैं। सरकार इस प्रकार के उद्यमों को स्थापित करने के लिए बैंकों से पूँजी उधार दिलाने की व्यवस्था कर सकती है। इसके अतिरिक्त सरकार इन स्वरोजगारों के लिए आवश्यक न्यूनतम तकनीकी शिक्षा और प्रशिक्षण का भी इन्तेजाम कर सकती है। इन कदमों से निःसंदेह समाज के निचले तबके की आय में वृद्धि होगी जिसके फलस्वरुप समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता को कम करने में सहायता मिलेगी। लेखक के मतानुसार सरकार के इन कदमों से भविष्य में इसका एक अन्य सुखद प्रभाव यह भी होगा कि समाज में आपराधिक प्रवृतियों में तथा अपराध में कमी आएगी। अतः यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त सुझावों के अपनाने से देश समाज और विश्व में व्याप्त आर्थिक असमानता में निश्चय ही कमी आएगी।

कर्मेश सिन्हा
दिल्ली

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