श्राद्ध – स्वरा सुरेखा अग्रवाल लखनऊ

254

श्राद्ध

वसु तुम्हारे बाबूजी को गए एक साल हो गया अबकी वर्षश्राद्ध पर तुम आओगी या नही?माँ की फ़ोन पर आवाज़ तुम आ रही हो ना? आजाओ वसु बहुत दिन हो गए हैं तुम्हें देखें भी।उधर माँ की आवाज़ डबडबा सी गई थी। वसु सिर्फ़ मौन थी।असमंजस कायर थी वह। विवाह के इतने साल गुज़र गए। पर वसु कह नही पाई की मुझे पीहर जाना हैं। जिम्मेदारियों के कई बहाने और कुछ जिम्मेदारियां पूरी भी।बच्चे भी बड़े हो गए थे।उनकी तरफ़ से भी कोई ना नही थी। बाबूजी के अंतिम दर्शन नही कर पाई थी।और उसका मलाल जिंदगी भर रहेगा। उनके शांति पाठ पर पहुंची थी।वह भी 4 दिन के लिए। आज एक साल बीत गया पता नही चला।सच तेज गति से बीतता वक्त सिर्फ चलता ही रहता हैं। अनिरुद्ध को तो याद होगा ही पर पूछे कैसे? काश वह वसु की मनस्थिति समझ पाता। खैर इसी उहापोष में वसु खुद से अक्सर प्रश्न पूछती।क्या वह स्वनिर्णय नही ले सकती शायद नही क्योंकि वह स्वावलंबी नही थी।कुछ जगह उसके अधिकार नाम मात्र थे।पर इतने सालो की वैवाहिक जिंदगी में अनिरुद्ध उसके मन की बात समझ नही पाया था।या समझना नही चाहता था।वसु को यही बातें अक्सर खलती थी।
अनिरुद्ध को अपनों की कमी नही खलती थी वसु भी खुश् थी पर कभी कभी उसे पीहर बहुत याद आता था।
।कभी कभी माँ गुस्से में बोलती,”वसु तुम्हें याद हैं की तुम्हारी माँ भी हैं?
प्रश्नचिन्हों और अंतर्द्वन्द में उलझी वसु अब भी निर्णय लेने में क्यों सक्षम नही हैं। वह किस वजह से निर्णय नही ले पाती।क्या अनिरुद्ध उसे इजाज़त नही देगा। इन्ही प्रश्नों में उलझी वसु आख़िर अनिरुद्ध को फ़ोन करती हैं। क़ि अनिरुद्ध कल पापा का श्राद्ध हैं और मैं पीहर जा रही हूँ। तुम दो दिन घर संभाल लेना।
आज अपने इस स्वनिर्णय पर वसु आत्मविश्वास से भर गई थी।और वह अपने ब्रिफकेस की तरफ़ बढ़ चली

स्वरा
सुरेखा अग्रवाल
लखनऊ

उत्तरप्रदेश

2 COMMENTS

  1. बहुत सुंदर 👌🏻 लघुकथा है दीदी 🌹
    और मुझे भी लगता है कि कभी-कभी हम लोग इस भारतीय सामाजिक पारिवारिक परंपरा में असमंजस की स्थिति में रहते हैं और इसीलिए अपनी चार दिवारी को लांघने का अपराध करने से डरते हैं।
    अपराध,, अपराध ही तो है हमें यही सिखाया गया है।
    पता नहीं कब यह मनुवादी सोच समाप्त होगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here