

समीक्षा :
व्यापकता और वृहदता लिए विषयों को एक बिंदु में समेट हीरे की कनी सम चमकती लघुकथाएँ
पुस्तक-जिस्मों का तिलिस्म
लेखक- सतीश राठी
आवरण-संदीप राशिनकर
प्रकाशक-ऋषिराज प्रकाशन
ग्राम-इटावादी
तहसील- महेश्वर
जिला-खरगोन
मध्य प्रदेश
प्रथम संस्करण-सितंबर 2022
आई.एस.बी.एन: 978-81-956080-2-7
मूल्य: ₹250
पृष्ठ संख्या: 96
45 वर्षों से लघुकथा से जुड़े क्षितिज के संस्थापक सतीश राठी जी लघुकथा के सृजन और विकास में विशेष रूप से मध्यप्रदेश के संदर्भ में महती योगदान है। सतीश राठी जी हिंदी लघुकथा के सशक्त हस्ताक्षर हैं।
सतीश राठी जी के लघुकथा संग्रह ‘जिस्मों का तिलिस्म’ में 72 लघुकथाएँ हैं। लघुकथा विधा को लेखक न केवल अपनी आत्मा के समीप महसूसते हैं अपितु वे इस विधा के माध्यम से अपने अंतर में उपजी भावनाओं-विचारों को पाठकों तक पहुँचाने में पूर्ण सक्षम भी दीख पड़ते हैं। सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध लेखक ने अपने आस-पास से ही अपनी कथाओं का ताना-बाना रचा-बुना और गुना है। वे एक कुशल शिल्पी के समान अपनी लघुकथा को गढ़ते हैं,तराशते हैं।व्यापकता और वृहदता लिए विषयों को एक बिंदु में समेट हीरे की कनी सम लघुकथा में संजो लेते हैं जहाँ वातावरण, मन: स्थितियों का चित्र पूरी कुशलता से उकेरते हैं,वहीं सामाजिक विषमताओं, विद्रूपताओं, कटु-कंटीले, खुरदरे यथार्थ को भी पूरी तरह उभार कर पाठक के सामने रख देते हैं। लेखक ने अपनी लघुकथाओं द्वारा समाज में व्याप्त अराजकता, पाखंड, आडंबर, भ्रष्टाचार, अमानवीयता, शोषण व आर्थिक वैषम्य को भी बखूबी रेखांकित किया है।
इसकी एक बानगी संग्रह की प्रतिनिधि लघुकथा ‘जिस्म का तिलिस्म’ में देखने को मिलती है जब व्यवस्था के सम्मुख लाचार, दीनहीन शोषित वर्ग स्वयं को अपंग अनुभव करता है । इस शीर्षक लघुकथा में लेखक जहाँ शोषक वर्ग पर तीखा प्रहार करते हैं वहीं लघुकथा के पैनेपन को भी पूरी दक्षता के साथ सुरक्षित रखते हैं। ‘जिस्मों के तिलिस्म’ शीर्षक इस तथ्य को प्रतिपादित करता है कि जिस्म! मानव देह! जिस्म की मूलभूत आवश्यकताओं के चलते किस प्रकार जीवन में मायारचित दृष्टिबंध निर्मित हो जाता है, जहाँ आदमी स्वयं को खो देता है और उसे लौटने का मार्ग ही दिखलाई नहीं देता। यही शोषण की पराकाष्ठा है।असहाय,विवश,भूखे जिस्म के सामने मनुष्य का विवेक शून्य हो जाना, वाणीहीन हो जाना, संघर्ष से विमुख हो जाना,एक तिलिस्म ही तो है।
मनुष्यों की पूरी कतार अपनी भूख से पराजित हो,व्यवस्था के सामने मूक हो जाती है,हस्तविहीन हो अकर्मण्य हो जाती है। मनुष्यों की यह कतार शोषक वर्ग द्वारा शोषित होने की आदी हो चुकी है।
मानवीय संबंधों के तानेबाने बुनते अतिसूक्ष्म तंतु भी लेखक की दृष्टि से अछूते नहीं रहे। ‘संवाद’ लघुकथा में पति-पत्नी में छोटी सी नोंक-झोक के कारण दोनों के बीच संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।एक ठहराव, ठंडापन, कसैलापन हृदय में व्याप्त प्रेम को पूर्णतः आवृत कर लेता है। प्रेम जैसे महत्वपूर्ण घटक के लुप्त होते ही जीवन में परिस्थितिजन्य यांत्रिकता सी आ जाती है। किंतु पंद्रह दिनों के अल्पकालीन प्रवास और तद्जन्य दूरी की कल्पना ही हृदय को भिगो देती है और अंतर की सारी कड़वाहट आँसुओं के रास्ते स्वत: बह जाती है।
लघुकथा से गहराई से जुड़ा पाठक, लघुकथा के अंत में, अपने हृदय में भी एक हल्कापन अनुभव करता है। शायद यह लघुकथा इसकी-उसकी सबकी है। यही कारण है कि यह सीधे पाठक के हृदय का स्पर्श करती है।
‘कालीन तले दबा लहू’ में लेखक ने शोषण की चक्की में पिसते सर्वहारा वर्ग की विवशता को व्यंजित किया है। व्यवस्था दान का ढोंग करती है किंतु फटी बनियान पहने,कतार में खड़े धरमू को उसके द्वारा सौ रुपए न दिए जाने के कारण दान में कंबल न मिल पाना,समाज के कुरूप चेहरे और दोहरे चरित्र को हमारे सामने रख देता है। पाठक का हृदय क्षोभ और आक्रोश से भर जाता है।
‘आटा और जिस्म’ लघुकथा में नियति के क्रूर चक्र में पिसती नारी का दैहिक शोषण एक छटपटाहट उत्पन्न करती है तो मन को कचोटती भी है कि आखिर कब तक?
इसी प्रकार मक्खियाँ,क्लीन सिटी,पेट का सवाल, आक्रोश, अपनी अपनी आस्था, लघुकथाएँ समाज में व्याप्त विसंगतियों, आडंबर, मिथ्याचरण को पूर्णतः अनावृत कर, करुणा एवं त्रासदी में भीगो, पाठक के अंतर्मन को झकझोर देती हैं।
अलग,पेट की खातिर,साइकल, चरित्र, शिष्टाचार, अधूरा साक्षात्कार, ठोकर, अनाथाश्रम,घर में नहीं दाने सामाजिक ताने बाने में बुनी लघुकथाएँ हैं जो लेखक के संवेदनशील हृदय की सशक्त अभिव्यक्ति हैं। वहीं मजबूरी,डाका और पिसती ईमानदारी लघुकथाओं में समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार लोग ही समाज में भ्रष्टाचार और अराजकता के कारण बनते दिखलाई पड़ते हैं। ‘खुली किताब’ पुरुष द्वारा प्रदर्शित खुलेपन-उदारता के छद्म आवरण को बेध, उसे कठघरे में खड़ा करती, पुरुष की संकीर्णता को उजागर करती, उसे प्रश्नों के घेरे में खड़ा करती नारी की लघुकथा है। ‘कंसल्टेंसी’ तकनीकी युग के सकारात्मक पहलू को पाठकों के सम्मुख रख दिल की धड़कनों को गति देती है।
‘काला कानून’ समसामयिक परिदृश्य पर लिखी लघुकथा है जिसमें सच्चाई से अनभिज्ञ केवल तर माल और मदिरा के लोभ के वशीभूत हो आम लोग, अपने स्वार्थ लोलुप नेता का अंधानुसरण कर रहे हैं।एक कड़वा सच! जिससे पाठक के मुँह का स्वाद भी कसैला हो जाता है।
रुग्ण अवस्था में, अपनों का अपनों से मुँह मोड़ लेना और ऐसे ही संवेदनशील क्षणों में ,कबूतर के निस्वार्थ मूक प्रेम को अभिव्यक्त करती अति हृदय स्पर्शी लघुकथा है ‘मूक संवेदना’।
समग्र रूप से सतीश राठी जी एक कुशल लघुकथाकार के साथ ही एक कुशल शिल्पी और कुशल चितेरे भी हैं। उनके शाब्दिक कौशल से ही उनकी लघुकथाओं के पात्र हमारे नेत्रों के सम्मुख जीवंत हो उठते हैं। लघुकथा के कलेवर में बुनी कसी सतीश राठी जी की लघुकथाओं की सहज,सरल, अर्थ गांभीर्यपूर्ण भाषा, बड़ी सहजता से भाव साम्य स्थापित कर पाठकों को अपने साथ लिए चलती हैं। यह उनकी लेखनी का प्रमुख गुण है।
सतीश राठी जी का लघुकथा ‘जिस्मों का तिलिस्म’ पठनीय, संग्रहणीय तो है ही साथ ही नव लघुकथाकारों के लिए मार्गदर्शी भी है।
–यशोधरा भटनागर
152, अलकापुरी
देवास,मध्यप्रदेश

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
