

श्राद्ध पक्ष में यह सच्ची कहानी !!
औचित्यहीन श्राद्ध
तो कहानी यूँ है कि वे शहर के छोटे व्यापारी थे.उनके 4 बेटे और दो बेटियां थीं .सोने-चांदी की छोटी सी दुकान थी .उससे भी ज्यादा उनका ब्याज का धंधा था .सोने-चांदी के गहने गिरवी रखकर वे ब्याज पर ₹ देते थे. बेटों और बेटियों की शादी कर वे स्वम् को दायित्व मुक्त समझने लगे थे.लेकिन जीवन का सच तो सामने आना अभी शेष था.
एक दिन घर का बंटवारा हो गया .बुजुर्ग माता-पिता ने अपने हिस्से में पुराना दो मंजिला मकान लिया जिसके ऊपरी हिस्से को किराए पर उठा स्वम् नीचे के हिस्से में रहने लगे.ब्याज का छोटा-मोटा काम जारी रखा ताकि गुज़र-बसर होती रहे.शेष सम्पत्ति अपने चारों बेटों में बराबर-बराबर बांट दी .
अपने पिता की सारी सम्पति बांट कर भी बेटे पिता से नाखुश थे.उन्हें अपने बुजुर्ग माता-पिता से शिकायतें ही शिकायतें थीं .दिनों दिन बेटे अपने माँ-बाप से दूर होते गए .बेटियां वैसे ही अपने अपने परिवारों में रम गईं थीं .
तीज-त्यौहार आना जाना रहता था .धीरे-धीरे वह भी कम होता गया .एक दिन पत्नी के देहांत के बाद वे निपट अकेले रह गए .फिर भी उनके बेटों ने उन्हें अपने साथ नहीं रखा.ऐसे ही किसी दिन उनके भी प्राण-पखेरू उड़ गए.
बेटों को खबर की गई .शहर के जात-बिरादरी के लोग इकट्ठा हुए .पहले तो इसी बात पर हुज्जत हुई कि अंतिम किर्याक्रम का खर्चा कौन उठाये .चारों बेटों में से किसी का भी मन नहीं था आगे बढ़कर जिम्मेदारी उठाने का !जैसे तैसे चिता को अग्नि दी गई .
अब शुरू होती है असली कहानी .
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पंचों की उपस्थिति में पिता की पेटी खोली गई .उस बड़ी सी पेटी में तो जैसे छोटा-मोटा खज़ाना ही निकल आया था .उसमें आस-पास के गरीब-गुरबों और किसानों की सोने-चाँदी की गिरवी रखी हुईं रकमें थीं .साथ रखे रजिस्टर में सभी के नाम पते मय तारीख के अंकित थे .
ये गहने समाज के उस वर्ग के थे जो एकबार कर्ज के गड्ढे में गिर जाए तो फिर उसका निकलना लगभग असंभव ही मानिए .सर्व सम्मति से सम्बन्धितों को सूचित किया गया कि वे अपनी रहन रखी रकम तुरन्त उठा लें अन्यथा रकम डूब जाएगी .2-4 लोग ही रकम छुड़ा सके .समाज के पंचों की सहमति से सोने-चांदी के गहने बेंच दिये गए .प्राप्त रकम (जो अच्छी खासी थी) से भव्य तेरहवीं की गई.
आप शायद ही यक़ीन करें .उस तेरहवीं में खाने के 11 बाने ( मिष्ठान्न ) बने .इस इलाके में सम्पन्नता के प्रतीक बाबर(घेवर )भी बनवाये गए .पत्तलों पर सामान समाता नहीं था .एक परस का सामान भी शायद ही किसी ने खा पाया हो .आधे से ज्यादा सामान घूरे पर फिका गया .कुत्तों ने खीर खाई सुअरों ने भी इतने घेवर खाये कि अफ़ारा हो गया .शेष सम्पति बेटे-बेटियों ने आपस में बांट ली.उन बेटे-बेटियों ने जिन्हौने अपने वृद्ध माता-पिता का जरा भी ख्याल नहीं रखा!
क्या यह उचित नहीं होता कि गिरवी रखी रकम सम्बन्धितों को लौटा दी जाती ? क्या ऐसे बेटों को समाज को कोई सबक नहीं सिखाना चाहिए था.क्या आज वे बेटे अपने माता-पिता का श्राद्ध करें (उन्हौने शायद किया भी नहीं ) तो भी क्या उनके गुनाहों की माफ़ी हो सकती है ?
क्या समाज भी इस निर्णय के लिए दोषी और पाप का भागी नहीं है ?यदि उनके बेटे आज श्राद्ध करें तो क्या आप जीमने जाएंगे?(आप ही से पूछ रहा हूँ !).
–सुरेन्द्रसिंह दांगी
अध्यक्ष पंचतत्व संरक्षण समिति
गंज बासौदा

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
