काव्य : वृद्ध-दिवस – गीता चौबे गूँज बेंगलुरु

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वृद्ध-दिवस विशेष

था कभी यह देश आगे, सांस्कृतिक परिवेश में।
सभ्यता उत्कृष्ट ऐसी, थी न कोई देश में।।
वृद्ध से आशीष पाकर, पल्लवित होता चमन।
फिर भला कैसे न होता, देश में चैनो-अमन!

पर हुई कैसी प्रगति यह, चल पड़ी कैसी चलन!
वृद्ध परिजन बोझ बनते, हैं युवा खुद में मगन।
खुशनुमा जो है बनी यह, जिंदगी उनके ही दम।
थाम उँगली था सिखाया, डेग रख चलना कदम।।

आज जब बूढ़े हुए तो, छोड़ पल्ला झाड़ते।
क्यों नहीं अब वृद्ध जन का, मोल दिल से आँकते!
क्यों भला बेकार इनको, हैं समझने ये लगे।
उम्र भर के अनुभवों को, शून्य ये कहने लगे।।

वृक्ष बूढ़े हों भले पर, छाँव की सौगात दें।
वृद्ध भी आशीष देकर, स्नेह की बरसात दें।।
मान इनको भी जरूरी, उम्र के इस दौर में।
स्नेह-सिंचन की जरूरत, खुश रहें जिस तौर में ।।

गीता चौबे गूँज
बेंगलुरु

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