काव्य : आज हँसने-हँसाने की बारी हमारी है – भार्गवी रविन्द् बेंगलूरू कर्नाटक

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वरिष्ठ नागरिक दिवस

आज हँसने-हँसाने की बारी हमारी है

उलझनों को पीछे छोड़ दिया हमने
आँसुओं से नाता तोड़ लिया हमने
आज तो हँसने-हँसाने उन्मादित होने की बारी हमारी है !

मेरे माथे की ये शिकन न देख
उम्र की झुर्रियां और थकान न देख
आज सब भुलाकर प्रफुल्लित होने की बारी हमारी है !

ज़िंदगी का बोझ ढो लिया हमने
जितना रोना था रो लिया हमने
आज फिर झूमते-गाते आनंदित होने की बारी हमारी है !

उलझनों से परे जीवन बिताना है
अपने इच्छा अनुसार समय गुज़ारना है।
आज फिर नये हौसले से जीवंत होने की बारी हमारी है !

दुनिया में फैला अंधेरा बहुत है
व्यथा,चिंता, दर्द गहरा बहुत है
तजुर्बा का ज्ञानदीप प्रज्वलित करने की बारी हमारी है !

मज़हब की ऊँची दीवार गिराना है हमें
प्यार लुटाना और प्यार पाना है हमें
आज बचपन सा उल्लासित होने की बारी हमारी है !

उठे हैं जो ये क़दम अब न रुकेंगे
हो बाधाएं कितनी भी अब न झुकेंगे
आज चूप न रहकर मुखरित होने की बारी हमारी है!

अब नहीं ढोना ज़िम्मेदारियों का बोझ
जो साँसें बाक़ी है जीना उसमें मिश्री घोल
अब ‘उसके’ भरोसे ज़िंदगी, निश्चिंत होने की बारी हमारी है।

चलो अपने हाथों की लकीरों में हम रब ढूँढें
ज़िंदगी मुस्कुरा कर जीने का नया सबब ढूँढें
आज नये अँकुर सा प्रस्फुटित होने की बारी हमारी है !

भार्गवी रविन्द्र…
बेंगलूरू कर्नाटक

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