काव्य : तीन गाँठ – रेखा सिंह पुणे, महाराष्ट्र

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तीन गाँठ

पिता की अर्थी कंधों पर थामे
चला जा रहा था
श्मशान -भूमि की ओर ,
कुछ पगडी की भार
कुछ अपनों के खोने का दर्द
फूट – फूट कर रो रहा था ।
वहाँ पहुँचते ही
कायामुक्ति के लिए
कर्मकांड आरम्भ हो गये।

तभी आंसू पोछ
कौतूहल से देखने लगा
उस ओर, जीवन -मृत्यु के
शाश्वत सत्य से अनभिज्ञ
कुछ बच्चे ताली बजा
खेल रहे थे ।
गुड्डे -गुड़िया का खेल
गा रहे थे —
देखो -देखो मुर्दा आया
दान -दक्षिणा में पैसे लाया
खीर पूडी खायेंगे
नये कपडे सिलवायेंगे।

एक मुट्ठी पुआल उठा
दो भागों में बाँट
एक गुड्डा एक गुड़िया
बनी
पुआल को मोड कर
उसमें तीन गाँठ बाँधे।
ऊपर छोटा गाँठ बाँध
चेहरे का शक्ल दिया गया
दो गाँठ कंधों में बदल गये
बीच का हिस्सा को
कपडे पहनाकर शरीर बना दिये
मानों जीवन ,विवाह और मृत्यु
के तीन गाँठ हो।
काजल ,बिन्दी से सजाया गया
फिर विवाह हुई
मिट्टी की मिठाइयाँ बाँटी गई
फिर अंत में …..
चिता सजा फूंक दिया गया
राम नाम सत्य है।
हतप्रभ वह देखता रह गया।

रेखा सिंह
पुणे, महाराष्ट्र

स्वरचित कविता

2 COMMENTS

  1. बहुत सुंदर कविताएं। बधाई रेखा जी।

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