

बुजुर्गों का बढ़ता अकेलापन
बुजुर्गों का आज के समाज में बढ़ता अकेलापन उनको महसूस हो या ना हो मगर आस पास का समाज अक्सर उनसे ऐसे सवाल कर बैठते हैं जिन सवालों का वें जवाब ना भी दें या दे भी दें तो उस आस पास के समाज पर उनके दुख दर्द का कुछ असर नहीं होता ।मगर उन्हें फिर भी बे तुकी बातें फैलानी होती है अपनी तुष्टि के लिए या यूं कहो अपना जी लगाने के लिए।
सवाल कुछ इस तरह के- बेटे बहू आते तो रहते होंगे? कब आये थे? अब कब आएंगे आदि आदि…!
बुजुर्गो की बड़ी समस्याएं स्वास्थ्य और अकेलापन को लेकर हो भी सकती है मगर
उसके लिए समय से पहले ड़रना कुछ इसी तरह से होगा जैसे ये कहावत कि- “पुल से पहले पाल बाँधना”
अब बुजुर्ग भी 60 साल से लेकर 80/90+ का हो सकता है। कोई कोई बुजुर्ग 60 साल का ही बीमारी के कारण थक जाता है ।कोई मजबूत रहता है 75 साल तक ।सब तासीर और स्वास्थ्य पर भी अकेले रहन सहन निर्भर करता है।
वैसे यह बात भी महत्वपूर्ण है कि जब किसी घर का कोई बुजुर्ग थकता है तो कोई न कोई खून के रिश्ते का ही उनकी देखभाल सही कर सकता है ।या फिर सरकार सुविधा उपलब्ध कराएं बुजुर्गों के लिए। एक जमाना था जब गाँव का बुजुर्ग अपना सौ साल भी कैसे पार कर गया घर भर को महसूस नहीं होता था। आज गांव में भी एकल परिवार की प्रथा चल रही है तो बुजुर्गों का बुढापा आजकल गाँव में भी सही नही बीत पाता। शहर तो बुजुर्ग के लिए पहले से ही बदनाम है। मगर छोटे शहर में फिर भी लोग भाग एक दूसरे का ख्याल रखते है जो पुराने समय से साथ रह रहे है तो पडोसी भी परिवार जैसा हो जाता है।
घर में जवान व बच्चों की अपनी व्यवस्ताएं और प्राथमिकताएं होती है ।पढ़ना और काम पर जाना। बच्चों को माँ बाप हमेशा माँबाप ही लगते हैं जिन्हें मेरी सहायता की जरूरत नहीं बल्कि मुझे मांबाप की सहायता की आवश्यकता हो सकती है। बच्चे माँ बाप को हीरो मानते है उन्हें लगता है वें शक्तिमान है कभी थकते नहीं है।।मगर थकते हैं वें बूढे हो गये हैं तो कदम कदम पर उनको अब मजबूत सहारा चाहिए।
जिन बुजुर्ग को पेन्शन मिलती है वें कहते रहते हैं कि प्लीज मेरे पैसे से ही मेरी देखभाल कीजिए मगर कीजिए और मुझे घर में रहने दीजिए। अपने परिवार के आस पास ।
मुसीबतें तो उन बुजुर्गों की आती है जिनके पास आर्थिक सुविधा भी नहीं और बच्चे भी कुछ नहीं सहायता करते। तिल तिल घुटन में मर जाते हैं वें।जमीर मजबूत होता है तो बचचो से मांगना नहीं चाहते ,कि बिन मांगे ही देगा तो ठीक है । कहीं कहीं बेटा देना भी चाहे तो उसकी लाइफ देने ही नहीं देती । वह अपने पेरेन्टस की सहायता करती है पति के पैसे से मगर पति के माँ बाप के लिए बेटे का पैसा उनका अपना पैसा नहीं होता।
पुराने जमाने के माँ बाप बेटों की कामयाबी पर कयी हाथ उछलते थे। मगर आज के माँ बाप की हालत इतनी खराब है कि अंतर्मन कष्टों में तंगी में रो रहा है और बाहर से हंसकर दिखाते हैं कि हम खुश हैं ।हमारे बच्चे हमारा ख्याल रखते हैं ।किसी चीज की तंगी नहीं होने देते ।मगर तंगी तो माँ बाप के चेहरे पर झलकने लगती है ।तब भी नालायक बेटों को पेरेन्टस के कष्ट दिखलाई नहीं देते। बेटों को बीवी की कराह सुनती है और बीमारी दिखती है मगर विधवा बूढ़ी माँ की बीमारी दिखलाई नहीं देती। इसमें बच्चो की गलती नहीं होती सब सोच की गलती है अब जब बच्चे सोच ही नहीं पाते कि उनकी माँ बीमार भी हो सकती है? उन्हें तो लगता है कि मां तो मां है। यहाँ तक कि कयी बच्चे तो माँ की बीमारी झूठी और बीवी की सच्ची मान लेते है। तुलनात्मकता बीवी और माँ के बीच अच्छी नहीं होती। मगर बच्चे ऐसा घर घर कर रहे है। जिससे यह सास बहू वाले रिश्ते में दूरिया बहू अक्सर बढाए ही रहती है ।जिसका नतीजा याशहल या कोई फल मैंने जैसा कुछ नहीं होता। बस एक दिन बुजुर्ग मर जाते है ।और खेल खत्म नहीं होता अब बच्चे बुजुर्ग हो गये हैं उनके बच्चे उन्हे कुछ तो नाच नचाएगे ही। यें सब जीवन के बदले है ।बडे बुजुर्गों से ही सुना कभी-जो बोया है वही काट रहे है ।शायद यह सत्य हो पर मैं इसे असत्य मानती हूं। क्यूं एक से एक बेकार आदत के सास ससुर मौज मार रहे हैं इतने अच्छे बेटे बहू मिल जाते है कि उनका जीवन धन्य हो जाता है। आज भी तरह तरह के लोग है समाज में सेवा आज भी कहीं न कहीं हो रही है बुजुर्ग लोगों की।कहीं नही हो रही।
– सुनीता मलिक सोलंकी
मुजफ्फरनगर उप्र

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
