

मुझे गांधी नही बनना ,गाँधी जी की व्यथा
वैष्णव जन तो तेने कहिये
(आज हमारे बापू राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी की पावन जयन्ती पर मेरा उन्हें शत शत नमन है।
आज मेरा यह आलेख समाज में ऐसी महानतम हस्तियों के प्रति हो रही उपेक्षा के प्रति एक वेदना है जो शब्दों से उमड़ पड़ी है)
बचपन से ही हम सभी परिवारों में बच्चो को महापुरुषों की जीवनी सुनाई जाती थी ,और हमे प्रेरणा दी जाती थी कि हमें उनके आदर्शों को अपनाना चाहिये पर आज के वातावरण ने कुछ ऐसा चित्र दिखलाया है कि, मन मे ऐसे भाव बनने लगे कि हम साधारण ही ठीक है। अगर महान व्यक्तियों की प्रतिष्ठा के साथ ऐसा खिलवाड़ हो रहा है ,तब हम साधारण ही ठीक हैं।
आप स्वयं देखिये कि हम अपने शहर के चौराहों में बड़े बड़े पूज्य और देश दुनिया के लिये मर मिटने वाले दिव्य आत्माओं, शहीदों ,सैनिकों आदि के स्टेच्यू बनवा कर लगवा देते हैं और कुछ दिनों तक लोंगों का रुझान उनके प्रति रहता है फिर ये स्टेच्यू घोर उपेक्षा के शिकार होने लगते हैं।
*क्यों* ?
क्योंकि लोग इनके प्रति कोई आत्मीय भाव के चलते इनकी प्रतिमाये नही लगाते बल्कि अपनी अपनी संस्था के प्रचार प्रसार और दिखावे के लिये इनका उपयोग एक मोहरे के तहत करते हैं और जब काम निकल गया तब कहाँ है मूर्ति और कहाँ है प्रतिमा …किसी को कोई परवाह ही नही।
और इससे भी ज्यादा पीड़ा दायक स्थिति तब बनी जब मैंने एक शादी के पंडाल में एक खम्भे के ऊपर बने एक मंच पर गाँधीजी और भगवान कृष्ण बने बच्चों को देखा। और वहाँ जो ज्यादा गलत था वो यह था कि गांधी जी बने बच्चे के पास ही लोग आइसक्रीम के जूठे डिस्पोजल फेंक रहे थे।
मुझे तो यह दृश्य देखकर बड़ा आघात लगा कि सच , अगर आज गांधी जी की आत्मा यह सब देखे तो क्या सोचेगी।
माना कि ये पैलेश वाले उन बच्चों को या उनके परिवार वालों को पैसे देते है ,और अच्छा खाना भी देते होंगे पर तब, जब सब चले जाते है।तब तक तो ये बच्चे लोंगो को खाते पीते देखकर कैसा महसूस करते होंगे।
चलो यदि उन्हें पैसे और अच्छा भोजन मिलता है ,तो उन्हें अच्छा ही लगता होगा ,पर क्या इस व्यवस्था में थोड़ा सुधार नही होना चाहिये।
यदि हम लोगों के आकर्षण के लिये हम ऐसे दृश्य बनाना ही
चाहते हैं ,तब सबसे पहले हम मानव अधिकार भावना और स्वतः की आंतरिक सोच से यह सोचे कि छोटे छोटे बच्चों को कड़कड़ाती ठंड में कम से कम वस्त्र पहनाकर जब किसी भी स्वरूप को बनाते हैं तब वहाँ गर्माहट के लिए कोई व्यवस्था हो और बच्चों को भोजन के लिए भी तरसती निगाह से किसी को तकना न पड़ें ।उन्हें पहले से ही भोजन कर्स दें और दूसरी एक और अहम बात कि जिन भी स्वरूप की झाँकी बनाये ,उस स्थान का चयन ऐसा हो ,जहाँ उनके स्वरूप की गरिमा को कोई ठेस न पहुँचे अन्यथा हम अपनी आने वाली पीढ़ी के संस्कारों में निरंतर कमी करते जायेंगे और एक दिन धीरे धीरे अपनी बहुमूल्य धरोहर को खो देंगे और बापू के इस भजन *वैष्णव जन तो तेने* *कहिये ,जे पीर पराई जाने* रे हम कैसे गा पायेंगे।
–ममता श्रवण अग्रवाल
ऑथर , सतना

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

पूरी तरह सहमत ममता