

लघु कथा
पड़ोसियों से बैर
मैं अभी पुस्तक पढ़ते-पढ़ते सोने ही वाला था पर सोया नहीं था कि किसी ने मेरे दरवाजे पर थप थप की आवाज के साथ दादा जी-दादा जी कहकर मुझे पुकारा। मैंने उठ कर दरवाजा खोला तो देखा दरवाजे पर पड़ोस के शर्मा जी की बड़ी बेटी घबराई हुई खड़ी थी। मैंने उससे कहा क्या हुआ? क्या बात है बेटा? तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो? सब खैरियत तो है? तब वह रोते हुए बोली दादा पापा को सीने में बहुत दर्द हो रहा है
। सुनकर मैं कुछ सोचने लगा कि तभी मेरी पत्नी जो मेरे पीछे आकर खड़ी हो गईं थीं। बोलीं पर हम क्या करें! जाओ किसी अस्पताल में दिखाओ। मैं उन्हें चुप कराते हुए लड़की से बोला तूं चल मैं आता हूँ और फटाफट पायजामा-कुर्ता पहन उसके पीछे-पीछे श्रीमति जी के कुड कुडाने के बावजूद भी चला गया।वहाँ मैंने देखा शर्मा जी पलंग पर अपना सीना पकड़े करीब-करीब रोते हुए दर्द से कराह रहे थे। पास ही उनकी श्रीमति विमला शर्मा भी लगातार उनके सीने को मल रहीं थीं । मुझे अपनी लड़की के साथ आया देख श्रीमति विमला रोते हुए बोलीं भाई साहब देखिए!इन्हें क्या हो गया। मैं सीधे शर्मा जी के पास गया मैंने भी उनके सीने को मला पर दर्द कम नहीं हुआ तब मैंने कहा इन्हें तुरंत अस्पताल ले जाना होगा। जिस पर विमला जी बोलीं रात के दस-ग्यारह बज गए और अब इस तरफ शहर के बाहर तो ऑटो रिक्शा मिलना भी मुश्किल है। तब मैंने कहा चिंता मत करो मैं रवि को जगाता हूँ, वह अपनी कार से ले जाएगा रवि जो उसी बिल्डिंग में नीचे के हिस्से में रहता था वह जीवन बीमा का एजेंट था। रवि का नाम सुनते ही विमला जी और उनकी बेटी दोनों एक दूसरे का मुंह देखने लगीं मैं उनकी आंखों की भाषा भांपते ही समझ गया था कि यह दोनों क्या सोच रहीं हैं। पर चुप रहा और तुरंत कमरे से बाहर आ गया बाहर आते ही मैं सीधा रवि के घर पर गया उस समय रवि किचिन में खाना बना रहा था। चूंकि वह अकेला रहता था तो जब घर आता था तभी अपना खाना बनाया करता था। मुझे आया देख बोला अरे दादा जी आप क्या बात है! तब मैंने शर्मा जी के सीने के दर्द और उन्हें अस्पताल ले चलने की बात कही जिसे सुनकर वह मेरी ओर प्रश्न भरी नजरों से देखने लगा जिस पर मैंने कहा कपड़े पहन और गाड़ी निकालो अधिक सोचने का वक़्त नहीं है। और फिर हम आनन-फानन में रवि की गाड़ी से शर्मा जी को अस्पताल ले गए। जहाँ डॉक्टरों ने शर्मा जी को देखते ही कहा यदि आप लोग जरा भी देर कर देते तो इन्हें बचाना मुश्किल था। समय से इलाज मिल जाने के कारण शर्मा जी बच गए थे। उन्हें उनकी पत्नी और बेटी के साथ अस्पताल में ही छोड़कर मैं और रवि वापिस घर आ गए। अस्पताल से घर तक आने के रास्ते में रवि मुझसे कुछ नहीं बोला। दो-तीन दिन बाद शर्मा जी की अस्पताल से छुट्टी हो गई और फिर एक रात करीब नौ बजे होंगे कि तभी शर्मा जी अपनी पत्नी के साथ मेरे घर आ गए मैं या मेरी पत्नी कुछ कहें कि उसके पहले ही वे दोनों मेरे और मेरी पत्नी के पैर पकड़ते रोते हुए हमसे माफी मांगने लगे तब मैंने उन्हें उठाया सोफे पर बैठाया फिर भी वे रोते हुये बोले, मुझे माफ कर दीजिए मेरी इतनी दुष्टता के बावजूद भी आपने मेरी जान बचाई है। मेरी पत्नी तो आपसे हमेशा ही छोटी-छोटी बातों पर लड़ते झगड़ते रहती थी जबकि गलती आपकी नहीं होती थी। आज मैं रवि बाबू की उसी कार से अस्पताल गया जिसके बाहर खड़ी रहने पर किसी ना किसी परेशानी का बहाना बनाकर उनसे लड़ता रहता था । और तो और कई बार उनके साथ गाली-गलौज तक कर दी थी और आज वही खुद उसी गाड़ी को चला कर मुझे अस्पताल ले गए। यदि आप लोग मेरी गलतियों को नजरअंदाज ना करते तो शायद मैं आज जिंदा नहीं रहता। तब मैंने कहा शर्मा जी गलती इंसान से ही होतीं हैं।पर उस दिन आपकी बेटी ने समझदारी दिखलाई यदि वह सोचती कि आप लोगों की हम लोगों से बुराई है तो शायद हम उसकी मदद नहीं करेंगे तब हमें भी पता नहीं चलता पर उसने उस सबको भूलते हुए तुम्हें बचाने के लिए ही मुझसे मदद मांगी हम अनजाने ही बैर पालते रहते हैं और बच्चों तक को भी उसमें सहभागी बना लेते हैं। मेरी बात खत्म ही नहीं हुई थी कि तभी रवि भी आ गया उसे भी बुला लाने की समझदारी शर्मा जी की बेटी ने ही की थी,जो शर्मा जी और अपनी माँ को मेरे यहाँ छोड़ कर तुरंत रवि को बुलाने चली गई थी वहाँ भी उसने रवि से कहा था कि मैं बुला रहा हूं तब मैंने शर्मा जी की बेटी के सिर पर एक हल्की सी चपत लगाते हुए कहा ठीक किया बेटा तूने हमें पड़ोसियों से बैर नहीं रखना चाहिए इसी में समझदारी है।और फिर उस दिन हमारे बर्षों के बैर दूर हो गए।
– आर के तिवारी
सागर
मध्य प्रदेश

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
