भारत की सांस्कृतिक एकता – मनोज कान्हे “शिवांश” इंदौर

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भारत की सांस्कृतिक एकता

गणेश उत्सव की धूम, बच्चों से लेकर बढोँ तक सभी बप्पा की अगवानी मे व्यस्त, चहुँ ओर उल्लास, उमंग और उत्साह । सब को गणेश पर्व की शुभकामनये।गणपति बप्पा मोरया।
क्या आपको पता है हमारे गणपति बप्पा भी भारत के महान स्वतन्त्रता आन्दोलन का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हिस्सा थे ? याद है न आपको भारतीय इतिहास के वो महान सेनानी जिन्होने कहा था कि
” स्वराज मेर जन्म सिद्ध अधिकार है और मै इसे लेकर ही रहूंगा”,,,,, जी हाँ !! वो महा नायक थे हमारे बालगंगाधार तिलक । गणेश उत्सव की परम्परा का श्री गणेश करने वाले तिलक जी की दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि इस उत्सव के माध्यम से उन्होने पूर्णतः टूट चुके सनातन समाज को एक मंच पर लाकर पुनः जोड दिया । एक ऐसे समाज को जो एक तरफ वर्षों से बाहरी आततायियों के हमलों से बिखर चुका था तो दुसरी तरफ जातिवाद,वर्णवाद ,भाषावाद मे खण्ड खण्ड हो चुका था, उन टूट चके,बिखर चुके बहुमुल्य मोतियों को सनातन संस्कृति के धागे मे पिरोकर एकता की माला मे गूँथ दिया । गणेश उत्सव की परम्परा ने सम्पुर्ण सोये हुए समाज मे नवीन प्राण फूंक दिये। एक तरह से सोये हुए सिंहों को अपने सिन्हत्व का अहसास कराया । एक नवीन सिंह गर्जना से भारत के स्वाधीनता आन्दोलन मे एक नव उर्जा का संचार हुआ । सच कहें तो श्री बाल गंगाधर तिलज जी एक महान दूरदर्शी थे जिन्होने ये भांप लिया था कि भारत की एकता और अखण्डता को यदि पुनर्जीवित करना है तो विभिन्न्तओ से भरे सनातन समाज को केवल और केवल भारतीय संस्कृति और धर्म के माध्यम से ही एक किया जा सकता है । गाँव-गाँव,शहर-शहर और गली-गली मे स्वाधीनता के आन्दोलन का बिगुल और तेज हो गया ।
विषय के सन्दर्भ मे प्रकाश डालना चाहूँगा कि उस समय के नेताओं मे अद्भुत दूरदर्शिता थी जो आज के नेताओं मे तो प्राय: लुप्त सी हो चुकी है । आज के नेता तो समाज को कितने भागोँ मे बाँटा जाये ताकि उन्के राजनितिक हितों की पूर्ति हो सके इसी गुणा भाग मे लगे रहतें है । जातियों और भाषाओं की लडाई मे समाज को धकेल कर राजनितिक रोटियां सेंकना हौ इन नेताओं का ध्येय है । परिणाम सबके सामने है, आज जहाँ जहाँ भी हमारी प्रचीन संस्कृति और मूल्यों पर आघात हुआ है वहाँ भारत विरोधी स्वर तेजी से मुखरित हो रहें है ।
पुनः समय आ गया है कि हम इस सत्य को पूरे मन से स्वीकार करें की यदि भारत को बचाना है तो भारतीय संस्कृति को सर्वप्रथम बचाना होगा अन्यथा हम यदि अब भी नही जागे तो वो दिन दूर नही कि इस देश के दुश्मन देश की अखण्डता को एक बार फिर खंडित करेगे । भारत का अस्तित्व भारय की “सांस्कृतिक एकता” मे ही निहित है । किन्तु दुर्भाग्य है की कुछ राजनितिक दल मात्र वोटों के लालच मे “तथाकथित धर्मनिरपेक्षता” के नाम पर देश के सांस्कृतिक मूल्यों पर निरन्तर आघात कर रहे है जो की सर्वथा अनुचित है ।
समय आ गया है कि हम अपनी प्राचीन वीरासत को बचाने के लिये पुन: एक जुट हो जाएं ।

मनोज कान्हे “शिवांश”
इंदौर (मध्य प्रदेश)

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