लघुकथा : कलियुग – तनुजा सिन्हा पटना, बिहार

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लघु कथा

कलियुग

अधिकारी साहब के कुत्ते रॉकी का जन्मदिन मनाया जा रहा था | रॉकी के लिए ख़रीदे गए मँहगे कपड़े और तरह -तरह के व्यंजनो से कमरा भरा था |
एक दिन पहले से ही पत्नी प्रिया अपनी कुंवारी ननद निकी का खाना बंद कर चुकी थीं |
पढ़ी -लिखी निकी भाभी की बाई बनने से इनकार कर चुकी थीं | बाबूजी के गुज़रने के बाद दो -चार पैसे पास में थे जों धीरे -धीरे कर के खत्म हो चुके थे | काम की तलाश में गर्मी की दोपहरी में निकली निकी को लू लग गई |
घर आते -आते निकी को दस्त और उल्टी होने लगी | शौचालय जाती निकी के कानों में अधिकारी साहब की आवाज़ आई |
“मेरा रॉकी बेटा आज क्या खाना खायेगा? पापा उसके लिए अभी आर्डर कर देंगे | ”
निकी की आँखों से खून के आंसू बहने और वो बाथरूम के दरवाजे पर बैठ गई |
” हैप्पी बर्थडे टू रॉकी ” के शोर में दर्द से कराहती निकी की आवाज़ दब गई |
तड़के रम्भा बाई निकी की पथरीली भूखी आंखे देखकर कांप गई —
तेरहवीं पर पंडित जी पुड़ी और पांच रंग की मिठाई खाकर अधिकारी साहब को आशीर्वाद का रिटर्न तोहफा दे गए |

रम्भा के गले से निवाला न उतरा |पत्तल पर निकी की भूखी आंखे उसे धिक्कारने लगी —

“मत खा रम्भा , मत खा! पाप का अन्न मत खा!”
सिसकती रम्भा के मुख से इतना ही निकला —

“तुम कब जाओगे?

“कलियुग ”

तनुजा सिन्हा
पटना, बिहार

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