काव्य : ये सफर – स्नेहा सिंह, प्रयागराज

338

ये सफर

सफर पर चल पड़ी हूँ मैं
मंज़िल की न खबर है।
राहें बनती जा रही है,
इरादे मेरे बेसबर है।

मेरे साथ-साथ चलने लगे हैं रास्ते
मंजिल से बेहतर है यह रास्ते।
चली जा रही हूँ मैं बहुत दूर,
जहाँ पर खिला है प्रकृति का नूर
चली हूँ मैं जिस सफर पर।

उसका कोई अंजाम तो होगा
जो हौसले दे सके ऐसे
कोई जाम तो होगा।
जो दिल में रखी है,
कामयाबी को
अपना बनाने की उम्मीद, तो
उसका कोई इंतजाम भी होगा।

स्नेहा सिंह, प्रयागराज

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here