

बेटियाँ
बाग में बुलबुल सी इतराती फिरती
तितली सी फुदकती,हवा के संग थिरकती
ख़ुशबू सी घर आँगन में महकती ,
बेटियाँ …….माँ का लिबास होती हैं।
दुधिया रात की पैरहन में सतरंगी सपने उकेरतीं
धूप को मुट्ठी में भींचे, दरीचों से छनकर उतरती
ख़्वाहिशों की दुनिया में हिरणी सी कुलाँचे भरती
बेटियाँ …पिता का अभिमान होती हैं ।
महकाती जीवन फुलवारी, स्नेह सुधा सिंचित
ये जीवन धन ,उजली धूप सी अपरिमित
सावन की प्रथम फुहार,मधुर कलरव गुंजित
बेटियाँ …..मरुभूमि में शीतल बयार होती हैं।
सागर की लहरों सी उछलती,पखेरु सी चहकती
ओस की बूँदों सी निर्मल,रातरानी सी महकती
बाबुल की दुलारी, बिंदिया सी दमकती
बेटियाँ ….सुखद, मधुर, स्वप्निल एहसास होती हैं।
साहिल पर फैली गीली दरदरी रेत पर दौड़ती
अरमानों के घरौंदे सजाती संवारती
लहरों के संग उछलती,कूदती-फुदकती
बेटियाँ …अमूल्य निधि, हमारा जीवन धन होती हैं ।
मगर,बुलबुल सा चहकता इनका जीवन
पल भर में क्यों हो जाता है क्षत-विक्षत
इनके पर कतर क्यों कर देते रक्त रंजित
बेटियाँ …भूल जाते फूलों सी नाज़ुक होती हैं ।
दुनिया के शोर में दब जाता है इनका रुदन
खामोशी में विलुप्त इनके अंतर्मन का क्रंदन
समाज की बलिवेदी पर सपने होते अर्पण
बेटियाँ …क्यों एक बोझ, एक ज़ंजीर होती हैं ?
क्यों दिलों को नहीं झकझोरता इनका मौन रुदन ?
क्यों नहीं पीड़ा देती हमको इनकी चुभन
क्यों इनके सपनों का,आशाओं का होता दमन
बेटियाँ …….क्या महज़ एक खिलौना होती हैं ?
– भार्गवी रविन्द्ब
बेंगलुरु,कर्नाटक

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
