समीक्षा : मानवीय जीवन के सहज पक्ष को उजागर करता है सुनीता मलिक सोलंकी का काव्य संग्रह “उसके बाद ” – मोनिका शर्मा , मुम्बई

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समीक्षा

मानवीय जीवन के सहज पक्ष को उजागर करता है सुनीता मलिक सोलंकी का काव्य संग्रह “उसके बाद “

पुस्तक -“उसके बाद ”
समीक्षक -मोनिका शर्मा
ग़ज़लकार-सुनीता मलिक सोलंकी “मीना”

पीड़ा के दौर में शब्द साथी बनते हैं | अकेलेपन में हाथ थामकर संबल देते हैं | कुछ ऐसा ही लगा बीते दिनों मिली सुनिता मलिक सोलंकी ‘मीना’ का काव्य संग्रह (शे’अरी मजमुआ) “उसके बाद” को पढ़कर | जिसमें साथ, विरह, सवाल और स्वीकर्यता, जैसे कई मानवीय जीवन के सहज पक्ष ही पन्नों पर उतरे हैं | संकलन अपने स्व. जीवनसाथी को समर्पित करते हुए वे खुद कहती हैं कि ‘जीवन बिगड़ने-सँवरने और जुड़ने-बिछड़ने का नाम है | मेरी किताब ‘उसके बाद’ जिसमें निखालिस जज़्बात हैं, ग़ज़ल के रूप में आप सबके समक्ष पेश करने की छोटी सी चेष्टा है है |’ सुखद है कि पीड़ा और खालीपन से घिर जाने के बजाय शब्दों का हाथ थामने की उनकी कोशिश सुंदर बन पड़ी है | कुल 86 पेज में ग़ज़लों के रूप में मनोभावों का शाब्दिक रेखांकन सा हैं | हर पृष्ठ पर कुछ अलग कहने का प्रयास पर भाव मन से जुड़े ही | संग्रह की पहली ग़ज़ल की पंक्तियाँ ‘होते नहीं हैं बंद जमाने तेरे सितम/ रिश्ते जो बच गए हैं वो बस हैं मलाल के’ ध्यान खींचती हैं | आज के जीवन की विडम्बना कहती एक और ग़ज़ल की पंक्तियाँ ‘कैसे इम्तिहाँ आ गए, आज हम कहाँ आ गए’, ‘धूप और हवा तक नहीं, कैसे अब मकां आ गए’ भी अच्छी बन पड़ी है |

संग्रह में शामिल सभी 82 ग़ज़लें या तो मन के भाव लिए हैं या परिवेश का बदलाव | पढ़ते हुए मन जुड़ जाता है | चुपचाप पुस्तक के पन्ने पलटते हुए ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव लिए अहसासों को समझने का मन होता है | ‘ख़ामोशी रूह तक समाई है, मुस्तकिल दिल तो बोले जाता है ‘ जहां आज के दौर का सच है वहीं ‘दर्द सहना ज़ुबां को बंद रखकर, वक़्त का हुक्म कैसा चलता है’, ज़र्द चेहरा उदास सी आँखें, मर्द तो इस तरह से रोता है’ कहीं ना कहीं वास्तविक जीवन की सच्चाई से मिलवाती हैं |

सुनीता मालिक सोलंकी की ग़ज़लें इंसानी मनःस्थिति और सामाजिक परिस्थिति के सरोकारों में पगी ग़ज़लें हैं | सांजीक जीवन का हृदयस्पर्शी पहलू भी इंका हम हिस्सा है | जो परिवेश के कटु सच से मिलवाता है | ‘भला अहसान अपना ख़ुद जताना किसको आता है, मिटाने वाले लाखों हैं बनाना किसको आता है ‘ साथ ही ‘ज़ीस्त क्या है सीख जाना चाहिए , ज़ेहन अपना सूफियाना चाहिए’, घाव की जो टीस ही समझा नहीं, उसको थोड़ा दुःख उठाना चाहिए’ जैसे लाइनें भी उम्दा अभिव्यक्ति लिए हैं | कुलमिलाकर किताब जीवन की विसंगतियाँ भी हैं और बेहतरी की उम्मीदें भी | कुछ ग़ज़लें भावनात्मक पहलुओं को समेटती हैं तो कुछ वैचारिक पक्ष पर बात करती हैं | बाक़ी उनकी ये पंक्तियाँ सब कह जाती हैं ‘हमने दिल रख दिया है ग़ज़लों में, बात गहरी है शायरी कम है’

मोनिका शर्मा
मुम्बई

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