लघुकथा : जाल से फिसली – विभा रानी श्रीवास्तव, पटना

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लघुकथा

जाल से फिसली

ट्रिन ट्रिन ट्रिन

“हैल्लो”

“…………….”

“हाँ! इतनी भोर में जगी हूँ। रात में लगभग एक-डेढ़ बजे आँखों का लगना और भोर चार बजे नींद का उड़ जाना रोज का नियम हो गया है…!”

“…………….”

“नहीं! मेरी तबीयत नहीं खराब होगी,”

“…………….”

“नहीं! मैं फ़ौलाद की नहीं बनी हूँ। सब जानते ही हैं, जब बच्चों के दादा बीमार रहे तो रात-रात भर जगना पड़ता था तो आदत लग गई। बचपन से कम सोने की आदत भी रही।”

“…………….”

“करना क्या है! कभी लॉकर का कागज ढूँढ़ते हैं, कभी एटीएम का पासवर्ड, कभी गाड़ी का पेपर, कभी बैंक का…, पता चला, शहर का कोई बैंक नहीं बचा था जिसमें अकाऊंट ना खोला गया हो!”

“…………….”

“हाँ! लॉकर खाली हो चुका है। सारे बैंक अकाऊंट भी…! गाड़ी बिके सालों गुजर गए, लेकिन उन्हें याद नहीं रहता न!”

“…………….”

“हाँ! तुम्हें नहीं पहचानते! इसलिए तो तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहते। हमारी शादी दस साल ही निभ पायी थी, यह भी इन्हें याद नहीं।”

“…………….”

“बच्चे तो चाहते ही हैं लेकिन एनआरआई बच्चों के पास रहने से भौतिक सुखों का अतिरेक, एकांत दमघोंटू परिवेश से भाग कर ही तो वृद्धाश्रम में सुकून से हैं…!”

“…………….”

“तुम्हारे साथ रहने के अनुरोध को स्वीकार करना कठिन है। चिन्ता नहीं करो, यहाँ समवयस्क लूडो, कैरमबोर्ड, शतरंज के संगी-साथी…,”​

“…………….”

“इस जन्म के लिए मेरे हालात को तुम्हारी मित्रता और तुम्हारी सहनशक्ति को आजमाने की जरुरत नहीं लग रही है। मित्रता प्यार में बदल सकता है लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि प्यार मित्रता में बदल जाए?”

“…………….”

“सही कहा! बिसात बिछा रह जायेगा। कौन पँछी पहले उड़ेगा यह कौन जान सका है…! लेकिन मैं पहले जाना ही नहीं चाहती।”

विभा रानी श्रीवास्तव,
पटना

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