

कहानी
जस्सी! ओ सरदारे!!
-संदीप तोमर
१९८४, नवम्बर की एक सुबह!!!
जस्सी को अताततायियों ने घेर लिया था। इन्द्रलोक की कोई ऐसी गली नहीं थी जिससे बचकर निकला जा सके। हर गली की नाकाबंदी कर दी गयी थी, निकलने का कोई रास्ता नहीं था। सब वही, गली-मोहल्ले के लड़के और बड़े लोग थे जिनके साथ जस्सी और मैं खूब खेले थे, जिनके घरों में कितनी ही शाम गुजारी थी। ये वही गली थी जिसमें चारपाई खड़ी करके हम उसके पीछे बैठकर गुड्डे-गुडिया का खेल खेला करते थे।
जस्सी उनसे घिरा अपनी जान बचने के जतन कर रहा था, कोई उपाय न सोच उसने घुटने टेक दिए, हाथ जोड़ कर गिडगिड़ाया- “चाचा! मुझे छोड़ दो, मैं तो आपकी गोद में पलकर बड़ा हुआ हूँ। मैंने आपका क्या बिगाड़ा है? सुनील भैया! आप तो मेरे लिए जलेबी भी लाते थे, और दीदी… स्नेहा दीदी तो मुझे राखी भी बांधती थी, फिर आज मेरा क्या कसूर कि आप लोग मुझे मार रहे हो?”
वह गिडगिड़ाता रहा था, किसी ने उसके ऊपर रहम नहीं किया।
मैं ऊपर के कमरे की खिड़की से सारा नजारा देखती रही। मैंने माँ को बोला- “माँ! वे लोग जस्सी को मार देंगे। सुनील को बोलो, उसे छोड़ दे,बाबूजी से कहो- उसे बचा लें, माँ वो बहुत प्यारा है, वो मासूम है।”- माँ से उसे बचने की गुहार लगाती रही मैं।
माँ ने मुझे चुप करने के लिए मेरे मुँह पर अपनी साड़ी का पल्लू रख दिया था, मैं माँ के चेहरे पर उसकी विवशता देख रही थी। माँ बोली थी- “बेटी! अब ये देश यूँ ही जलता रहेगा, ऐसे कितने जस्सी हैं जो रोज़ जल रहे हैं। एक मगरूर औरत की हत्या का बदला ये कितने लोगो को मारकर लेंगे?”
मुझे लगा कि जिनकी हत्या हुई वे मगरूर तो नहीं ही थी, अलबत्ता देश के हालात बिगड़ रहे थे, और मेरे सामने मेरा प्यारा दोस्त, मेरा जस्सी अपनी जान बचाने में असहाय था।
मेरी निगाहें सड़क पर गड़ी थीं छ, शायद किसी को जस्सी पर रहम आ गए, तभी माजिद ने मिटटी के तेल का केन खोलकर जस्सी के ऊपर डाल दिया।
वह एक बार फिर चिल्लाया… रोया- “मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो। मैं बेक़सूर हूँ, माजिद! देख यार, तू तो मेरा दोस्त है, तू और मैं साथ-साथ खेले हैं। लंगर, ईद की सिन्वेई साथ-साथ खाए हैं।”
“जस्सी यार सॉरी, देख ये देश और कौम का मामला है।”
“माजिद, देश की आज़ादी के बाद तो तेरी कोम को भी जलाया गया था।”
“वो सब मैं नहीं जानता, ये लोग हमारे अपने हैं और तेरी कॉम ने तो मारा है हमारी प्रधानमंत्री को, तुझे क़ुरबानी तो देनी पड़ेगी।”
“आज तू जिनके साथ मिलकर अपने बचपन के दोस्त को मार रहा है, इन्होंने तो हमारे प्यारे गाँधी बापू को मारा। फिर तू आज इनके साथ….।”
मेरे कानो में ये सब बातें साफ़- साफ़ आ रही थीं &:। जस्सी अपनी बात पूरी कर पाता उससे पहले ही सुनील ने जस्सी के ऊपर जलती मशाल फेंकी। आग की लपटे जस्सी को भून रही थी।
मैं बेबस लाचार उसे बचा भी नहीं सकती थी।
मुझे याद आया जब 5 साल पहले जस्सी मेरे साथ मेरे घर में दुर्गा पूजा के समय था, मेरे सूट में आग लग गयी थी तो उसने अपने हाथों की परवाह न करते हुए मेरे सूट की आग को बुझायी थी। मैंने उसे धन्यवाद कहा था तो उसने कहा- “गुड्डी! ये तो मेरा फर्ज है, तू मेरी दोस्त है न, बड़ा होकर तुझसे कुडमई करूँगा, तुझे अपनी दुल्हन बनाऊँगा।”
तब मैंने उससे कहा था- “जस्सी!य एक दिन मैं भी तेरे किसी काम आऊँगी। पर दुल्हन तो किसी बानिये की ही बनूँगी।”
उसने कहा था -“चल बानिये की छोरी! तू क्या मेरे काम आएगी?”
“तू भी याद करियो, ओ सरदारे! देखना मैं तुझे मौत के मुँह से भी बचा लाऊँगी।”
आज वह जल रहा था और जल रहे थे मेरे सपने, मेरे वायदे… आँसू मेरे चेहरे को नम किये थे और चीख मेरे गले में घुट गयी थी-“ओ सरदारे! काश तू अपनी दुल्हन बना लेता तो आज तेरे साथ ही मेरी अर्थी भी निकल रही होती, तब मैं अपना वादा पूरा न करने का गिल्ट तो लेकर न जीती।”
आँसुओं का सैलाब था कि रुक ही नहीं रहा था।
–०–
– सन्दीप तोमर
नयी दिल्ली- 110059

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
