

व्यंग्य
आईने की गवाही
पत्रकारिता पक्षपात करने लगे, देखकर भी अनदेखा करें तब समझिये अक्ल और प्रतिभा को नष्ट करने के लिये द्रोणाचार्य एकलव्यों के अंगूठे कटवाना शुरू कर चुका है जिसकी तस्वीर आईने में देखकर भी न दिखाई जाये तब समझ लिये सत्य की विदाई की शुरुआत हो गयी है। वैसे यह सच है कि आईना बोलता है, पर मेरी यह बात आप सभी को अटपटी लगेगी, भला आईना भी कहीं बात करेगा, लेकिन यह बात सोलह आने सच है कि आईना बोलता है। समाज के हर जाति वर्ग का अपना-अपना आईना होता है वहीं विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका सहित चौथे स्तंभ पत्रकारिता का भी आईना होता है। बात चैथे स्तम्भ पत्रकारिता के आईने में दिखने वाली तस्वीर की है जिसमें होने वाली हर छोटी बड़ी हलचल मायने रखती है। आईने का स्वभाव एक ही है कि वह किसी के भी आईने से देखे, वह वहीं बतायेगा जो चेहरा उसके सामने होता है। पत्रकार की कलम अच्छे-बुरे में, अपने-पराये में, ऊॅच-नींच में, छोटे-बड़े में सच-झूठ में, नीयत-बदनीयत में एक बारगी आंखों देखी की हूबहू सूरत में फर्क कर सकती है पर आईने की गवाही में आईना सच ही कहेगा।
पत्रकारों के पास भी वहीं आईना होता है जो दृश्य को हूबहू दिखाता है, पर उसकी आॅखों में अपने अखबार मालिक का लगाया काजल होता है, जिसमें तस्वीर को अपने मालिक के कागज की झाॅई से देखता है,या अपने स्वार्थ के लिये अनदेखा भी कर देता है। आईने में सच्चाई की एक ही तस्वीर के अनेक रूप दिखाने वाले पत्रकार की आॅखों में भेदभाव, विसंगतियाॅ, दुख दर्द पीड़ा, मिलन-बिछोह, नक्कासी, सुन्दरता-कुरूपता आदि की सकरात्मक, नकारात्मक तस्वीरे उनके मन में भरे वैचारिकता को प्रकट करती है। किसी ने कहा है-‘‘जाने कैसी हवा का असर है, सहमा-सहमा सा हर शहर है।‘‘ आप उसकी मूक स्वरों में दी इस गवाही को आईने की गवाही मान कर संतुष्ट हो सकते है, पर गंदगी कहां है, सुगन्ध कहाॅ है यह आईना देखता है, पर बोलता नहीं पर समझता है-‘‘हमको पता है आपकी सारी सियासतें। अंधा कुआं है इसमें हमें मत गिराईये।‘‘
मेरे शहर में सामाजिक सरोकार के अनेक आयोजन होते है। अनेक आयोजन ऐतिहासिक उपलब्धियों से पूर्ण होते है,जिसमें विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के शीर्षस्यों की उपस्थिति उन्हें गरिमा और गौरव प्रदान करती है। हम चौथे स्तम्भ में गिने जाते है, सभी स्तंभों के अपने -अपने भव्य आलीशान भवन है, पर हम पत्रकारों को यह सौभाग्य कहा,? मुश्किल से प्रदेश में एक दो प्रतिशत भवन पत्रकारों की सहूलियतों के लिये कानून-विधान के विशाल पहाड़ों का पार करने दुर्गम परिश्रम के बाद मिलते है, तब भवन पाकर पत्रकारों को गौरवान्वित होना चाहिये पर वे अपने भाग्य को गलियों में गुर्राना मानकर वही तस्वीर दिखाये तो समाज क्या अर्थ निकालेगा, इतनी समझ विकसित न कर पाने वालों की खोपड़ी पर तरस तो आयेगा ही! ऐसे बड़े बैनर वाले, बड़े नाम वाले, खुदको खुदा समझने वाले मूर्धन्य पत्रकारों की खोपड़ी में बात क्यों नहीं आती ? सीधा सा कारण हो सकता है कि वे अपने को किसी शहनशाॅह से कम नही समझते है भले महलों में रहकर भूखे-नंगों का बर्ताव कर घात लगाकर शिकार करना उनका शौक बन गया होे, ऐसे शिकारियों के शिकार बन बैठे विधायिका, कार्यपालिका आदि के छोटे ओहदे से बड़े ओहदे तक भलीभाॅति जानते समझते है। हमेशा खून पीने वाले खून को ही अमृत मानते है और आईने के समक्ष अपनी कलम में बंद आंखों से रोशनी का गुणगान करते है। यही मानसिकता की हमें अपना खुदा मानो तो तुम हमारे सगे-सम्बन्धी हो, भाई-बहिन हो, और जरा सी खुदाई अगर घास के तिनके को मिल जाये तो ये छद्मवेशी पूरे जंगल में आग लगाकर तिनके के अस्तित्व का मिटा कर साधुता के चोले में अपनी पूजाये करवाते है।
आईना में तस्वीर देखकर समाज को दिखाने का काम ऐसे ही पत्थदिल औकातहीनों के भरोसे आ जाये तो ये आपके चमन को पतझड़ बना कर आपके घर में लुटेरे बनकर प्रवेश कर बस जायेंगे। या यूं भी कहा जा सकता है कि -‘‘चुनचुन कर खाॅ गये, सभी नदियों की मछलियाॅ। बगुला भगत बने है ये उजले परों के लोग।‘‘ इसलिये इनसे बचने का एक ही उपाय है कि इनके आईनों से पैदा र्हुइै इनकी कुंिठत मानसिकता की तस्वीर से खुद बचे और समाज को, अपने शहर को भी बचाये। भाषा शैली में ये अपने मस्तिष्क पर जोर नहीं डालते है, इनकी अपनी खोपड़ी में एकाध खिड़की खुली होती है जिसे वे दुनिया के परमाणु बम से कम नहीं मानते है। मेरे शहर में चंद कलमकारों की मेहनत-परिश्रम से बने पत्रकार भवन के 17 सितम्बर विश्वकर्मा जयंती पर हुये शिलान्यास पर विधायक से लेकर पार्षद तक सारे अतिथि प्रसन्न है, जो आने वाले पत्रकारों की नस्ल के काम आएगा और जिला मुख्यालय पर जिले के दूर-दराज से आये पत्रकार के लिये उपयोगी साबित होता। जिला मुख्यालय पर यह जो दूसरा आईने की तस्वीर में परछाईनुमा कई उपग्रह है, वे स्वयं को आकाश में टिमटिमाते तारों की तरह अंतरिक्षवासी समझ यहाॅ भी अपनी सत्ता विस्तार करना चाहते है पर वे जब तक सत्य को सत्य अभिव्यक्त कर विचारों के अंधे कुऐ से बाहर न निकलेगें और सच पर झूठ का और झूठ पर सच का पर्दा डालकर इंसानियत का गला दबाना बंद नहीं करेंगे, वे आईने की गवाही का साक्ष्य नहीं बन सकेंगे। उनके लिये एक पुराना शेर याद आता है-‘‘ये इश्क नहीं आंसा, बस इतना समझ लीजे, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।‘‘
– आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार,
श्रीजगन्नाथधाम, काली मंदिर के पीछे,
ग्वालटोली नर्मदापुरम मध्य प्रदेश मोबाइल 9993376616

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
