काव्य : प्रकृति का श्रृंगार – सरोज लता सोनी भोपाल

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प्रकृति का श्रृंगार

पावस में प्रकृति रानी का,
यह कैसा होता श्रृंगार |
पल-पल में है रूप बदलती ,
भाँति -भाँति का कर श्रृंगार ||

वसुधा ओढ़े धानी चुनरिया ,
आंँचल में हैं फूल खिले |
चंदा की चमके रे बिंदिया,
उषा से सिंदूर मिले ||
पायल की नूपुर हैं बूँदें,
छननछनन करतीझनकार ,…
……
पावस में प्रकृति रानी का ,
यह कैसा होता श्रृंगार ||

सिर के ऊपर मेघ मटकिया ,
नभ से छलके नेह गगरिया |
चम-चम चमके चपला देखो,
बनी मेखला सजी कमरिया ||
ताल -तलैयों के दर्पण में,
यौवन अपना रही निहार….

पावस में प्रकृति रानी का,
यह कैसा होता श्रृंगार ||

मेघों के गड़गड़ -गड़ स्वर में,
झरनों के झरते झर- झर में|
नदियों के बहते कल -कल में,
पुरवैया के सर- सर स्वर में ||
लहरें सिंधु कीउछल-उछल कर गाती गीत मल्हार ,……..

पावस में प्रकृति रानी का,
यह कैसा होता श्रृंगार||

पल -पल में छाई उजियारी ,
पल -पल में छाई अंधियारी |
पल- पल में है रूप बदलती,
प्रकृति की है छटा न्यारी ||
इंद्रधनुषी रंगों से फिर,
भाँति-भाँति का कर श्रृंगार..…..

पावस में प्रकृति रानी का,
यह कैसा होता श्रृंगार|…..

सरोज लता सोनी
भोपाल

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