काव्य : गीत : तम – विनोद शर्मा, गाजियाबाद

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गीत : तम

*तम कितना है इस दुनिया में,*
*जानें किसको पता नहीं?*
*निरख-परख कर पैमाने को,*
*सबने फिर क्यों कहा सही!?*

*कोना-कोना जगह भरी थी,*
*क्या कुछ खाली रहा नहीं?*
*धरती से अंबर तक जग में,*
*बस मिल जाता राह यहीं।*
*समझ न आई बात कहीं की,*
*भटक रहा क्यों यहीं कहीं।*
*निरख-परख कर पैमाने को,*
*सबने फिर क्यों कहा सही!?*

*छिपे कंदरा में तुम जैसे,*
*जहाँ तिमिर ही मिलता है।*
*अनगिन बिच्छू-सर्प वहीं हैं,*
*बता कौन कब गिनता है?*
*रहें उजाले में सब मिलकर,*
*खतरों में जो फँसा नहीं,*
*निरख-परख कर पैमाने को,*
*सबने फिर क्यों कहा सही!?*

*होता रौशन हर प्रकाश से,*
*कहो सुरक्षित कौन यहाँ?*
*पता नहीं इस वन में कैसै,*
*अनुरक्षित है मौन जहाँ।*
*रहते हैं खूंखार जानबर,*
*जहाँ नदी की धार बही,*
*निरख-परख कर पैमाने को,*
*सबने फिर क्यों कहा सही!?*

विनोद शर्मा,
गाजियाबाद

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