गणपति स्थापना का औचित्य – ममता श्रवण अग्रवाल,सतना

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गणपति स्थापना का औचित्य

हमारा देश त्योहारों का देश है और यहां तो प्रतिदिन त्योहारों जैसा वातावरण रहता है क्योंकि अनेकों धर्मावलंबियों का समावेश होने से सभी के अपने अपने पर्व होते हैं और सही मायने में देखा जाए तो अकेले हिंदुओं के यहां ही इतने पर्व होते हैं कि हमारे घरों में सदैव उत्सवीय माहौल बना रहता है जो बहुत ही अच्छी बात है जिससे एक सकारात्मक उर्जा भी प्रवाहित होती रहती है ।
अभी इन दिनों ही आप देखिए गणेश उत्सव की धूम है और लगभग पचास प्रतिशत घरों में छोटी, बडी गणेश प्रतिमाएं स्थित है और इस प्रकार कई लोगों को रोजगार भी मिलता है जैसे मूर्तिकार को,फूलमाला वालों को, बैंडबाजा वालों को, मेवे मिष्ठान्न विक्रेता को और भी कई लोगों को जैसे पांडाल बनाने में संलग्न श्रमिक वर्ग आदि को …।
यह तो एक दृष्टि से अच्छी बात है पर जब हम दूसरे दृष्टि कोण से देखते हैं तो ऐसे पर्वों का एक दूसरा ही स्वरूप सामने आता है, वह दो।प्रकार से व्यथित करने वाला है….
पहला आंतरिक पहलू
दूसरा बाह्य पहलू

आंतरिक पहलू
हमारे देश में आध्यात्म का जो स्वरूप होना चाहिए वास्तव में वो नही है कुछ अपवादों को छोड़कर जैसे हम प्रतिदिन धर्म की बात करते हैं पर हम धर्म को कितना समझते हैं यह जानना ज्यादा आवश्यक है ।
आज जब हम गणपति जी की आराधना करते हैं तब क्या हम उनका जीवन दर्शन समझते हैं कि उन्होंने अपने माता पिता में समस्त सृष्टि को समाहित माना और उन्हीं की परिक्रमा से वे गणनायक बने और साथ ही बहुत सारे गुण कि इतने बड़े शरीर को एक चूहे पर साध लेना ,यह अंतर की साधना शक्ति की बात है ,
पर चलिए ये तो कोई बात नही लेकिन जब हम गणेश जी की स्थापना,आराधना करें तो कम से कम अपने माता पिता के प्रति तो सहृदय भाव रखें ।
मैने तो अपनी आंखो से देखा है ऐसे घरों में माता पिता का अपमान होते और पीछे गणपति की आराधना होते..
ऐसी कितनी बाते हैं जो अभी लिखना संभव नहीं है ।
अब आता है दूसरा पहलू
दूसरा पहलू
आप कभी भी गणेश जी या मां दुर्गा जी की मूर्तियों के विसर्जन के बाद किसी नदी के आस पास जाएं तो आपको बड़ी ही वेदना की अनुभूति होगी ।
आप देखेंगे कि इन देव मूर्तियों के अंग प्रत्यंग कचरे में बिखरे पड़े हैं और ये सात आठ महीनों तक ऐसे ही पड़े रहेंगे और अनचाहे ही लोगों के पैरों के नीचे आते रहेंगे और फिर नए उत्सव का समय आ जायेगा।
अंतिम बात
अंतिम बात यह है कि जो भी परंपराएं बनाई जाती हैं वो कल्याणकारी होती हैं पर आगे आते आते अपने मूल रूप और भाव से दूर केवल दिखावे और होड़ तक ही सीमित रह जाती है जो कि पूरी तरह से अर्थ हीन है ।
आप उत्सव मनाएं पर होड़ में नही कि एक एक मोहल्ले में पांच पांच दुर्गा मूर्तियां रखें जिससे लोगों को हर तरह से असुविधा होती है मसलन सबके अलग अलग रिकॉर्ड बजेंगे जिससे कि पॉल्यूशन जैसी स्थित भी उत्पन्न होती है और विसर्जन में उपरोक्त स्थित का निर्माण होता है और भी कई बाते हैं ।
अंततः आप छोटी छोटी मूर्तियां रखें और मिट्टी की मूर्तियां रखें जिससे उनका विसर्जन घर पर ही हो सके और आप इस बात विशेष ध्यान रखें कि *साधन से ज्यादा* *महत्वपूर्ण साधना है जो* *हमें वास्तविक फल देती* है ।
अतएव अपने ईष्ट के मूल भाव को समझे और उनके बताएं मार्ग पर चलें तो आपकी आराधना का एक अद्भुत स्वरूप निखर कर सम्मुख आयेगा।

ममता श्रवण अग्रवाल
साहित्यकार
सतना 8319087003

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