काव्य : हिन्दी – शीला संचेती कोलकाता

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हिन्दी

हिंद का सौभाग्य श्रृंगार हिंदी
माँ भारती के भाल की बिंदी।
शब्दों से छंदों से वैभवशाली
दिलदार विशाल ह्रदयवाली।

गीतों काव्यों के कानन महकाती
पावन गंगा सी कलकल सरसाती।
मनहर भावों से रहती मदमाती
भाषा की समृद्ध यह टकसाली।

सूर तुलसी का अभिमान हिन्दी
मीरा की मर्यादा का मान हिन्दी।
निराला महादेवी प्रसाद की हिन्दी
दिनकर गुप्त पंत से प्रख्यात हिन्दी।

आचार्यों मनीषियों का तर्पण हिन्दी
संघर्षरत निकाला नवनीत हिन्दी।
संस्कृति का स्वाभिमान है हिन्दी
वेदों ऋचाओं का अनुष्ठान हिन्दी।

संस्कृत की बेटी का गौरव पाया
कोई बंधन भला कहाँ बांध पाया।
विभिन्न भाषाई शब्दों को अपनाया
फलतः अपना अपार कोश बढ़ाया।

रचपच गये इस परिवार में कुछ ऐसे
पराये अनजान थे ही नहीं कभी जैसे।
संदर्भ की अपेक्षा हर शब्द को पिरोती
आंग्ल की तरह नहीं एक में समेटती।
चाची ताई भुआ मासी का भेदबताती
आंटी में नहीं अनेक रिश्तों को लपेटती।

नई पीढ़ी क्यों इसे छोड़ भ्रमित होती
आंग्ल भाषा के पीछे पागलहो फिरती।
क्या बस एक हिदी दिवस से काम चलेगा
बिखराव को संकल्पित हो समेटना होगा
वंदन हिन्दी अभिवंदन अभिनंदन हिन्दी
मातृभाषा का गौरव पुनः लौटाना होगा।

शीला संचेती
कोलकाता

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