

लघुकथा
अच्छाइयों का अनुचित लाभ
मीना एक संस्कारी, गुणवती, सर्वगुणसम्पन्न और एक समझदार लड़की थी। बचपन से ही पढाइयों के साथ-साथ भक्ति भाव में उसका बहुत मन लगता था। साथ ही साथ अपने हँसमुख स्वभाव के कारण सभी से स्नेहाशीष पाती थी। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही उसे एक अच्छी नौकरी मिल गयी। मीना अपने कार्य को पूरे मनोयोग से, पूरी तल्लीनता और ईमानदारी के साथ करने लगी। इसके कार्यशैली, विनम्र, सौम्य, शालीन स्वभाव से सभी लोग खुश थे। कार्य करने की ऐसी लगन थी कि इसे कुछ ही वर्षो में सारा काम आ गया। लेकिन इसे इस बात की बिल्कुल भी भनक नहीं थी कि इन सारे कार्यो की जानकारी के बाद यही कामों के बोझ के तले दब जाएगी। समाज में या कार्य स्थल पर सभी एक जैसे नहीं होते इसका एहसास उसे शुरू में नहीं हुआ। कुछ उसमें टाइम पास करने आते है। कुछ को अपना कार्य ही नहीं आता और कुछ तो जान बूझकर सीखना ही नहीं चाहते कि कौन लफड़े में पड़े जो कर रहा है उसे ही करने दो। और होता भी यही है- जो कर रहा होता वही मर रहा होता। शांत, सहनशील, गंभीर स्वभाव की मीना को अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने उसे बखूबी आता था। यही कारण था कि जिसको कोई काम करवाना होता था वो सभी इसी की तरफ़ आस लगाकर देखते थे। क्योंकि मीना मना नहीं करती थी और उनका काम कर देती थी। उसी के साथी उसी की अच्छाइयों का अब अनुचित लाभ लेने लगे। अपने कार्य के साथ-साथ और लोगों के कार्य को करना, फिर घर की सारी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना उसके लिए आसान नहीं था। लेकिन मीना के जज़्बे और हौसलों के आगे ये सब कुछ भी नहीं था। मीना को ये बात जब तक समझ में आती तब तक बहुत देर हो चुकी थी। क्योंकि शुरुआती दिनों से ही मीना ने अपनी प्रतिभा और विश्वास का लोहा मनवा लिया था। जिसके कारण उसे कार्यस्थल की सारी जिम्मेदारियों के साथ ही अन्य जिम्मेदारियां भी सौंप दी गयी थी।
सार- सारे कार्यों की जानकारी होना अच्छी बात है। परन्तु इसका ये बिल्कुल अर्थ नहीं कि किसी की अच्छाइयों का अनुचित लाभ लेकर उसी से करवाया जाए।
कृष्ण कान्त मिश्र
आजमगढ़

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
