काव्य : हिन्दी की विसंगतियों पर एक कविता – डॉ राजीव पाण्डेय गाजियाबाद

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हिन्दी की विसंगतियों पर एक कविता

प्रातः काल से शुभ रात्रि तक ,समृद्धशाली हिन्दी कोश।
फिर भी जिव्हा दूषित करते,लेकर पश्चिम वाला जोश।

नतमस्तक अभिनन्दन वाले,भूले अंतर्मन का प्यार।
मंगल वेला के स्वामी जी, मांगे मॉर्निंग रोज उधार।
डार्लिंग ढूँढ रही प्रीतम को,नाइट क्लब में हो बेहोश।

ताई चाची मामी मौसी, सब रिश्तों में जंग लगी।
नया जमाना आयातित है,आंटी जी की भंग लगी।
रिश्तों में कंजूसी करके, होती डिक्सनरी खामोश।

प्रायश्चित और क्षमा गौण हैं,सॉरी सिर चढ़ बोल रही।
अपनी मिश्री सी बोली में ,प्लीज थैंक यू घोल रही।
सर मैडम को देख रहा है,अपने अंतर्मन का रोष।

नूतन युग की परिपाटी में,सब सम्बोधन अकड़ गए।
जीजा साले सासु ससुर सब, केवल लॉ में जकड़ गए।
बाल्यकाल से घर में सीखे , करो मोम डैड उदघोष।

दूध मलाई लस्सी वाले,अब कोल्ड ड्रिंक्स अपनाते।
माखन मिश्री भोग भूलकर,क्यों बर्गर पिज्जा खाते।
इंग्लिश वाला नशा झूमता, कहीं डीजे पर मदहोश।

कान्वेंट की चमक दमक में,जो सन्तति को भिजवाते।
अपने बापू छोड़ छाड़ कर , नूतन फादर अपनाते।
अभिवादन में सीख गए है, कहीं भुजपाशी आगोश।

कर हस्ता क्षर अंग्रेजी में, हिन्दी का दिवस मनाते।
पख वाड़े में सूट पहनकर,फिर श्राद्ध पक्ष कर आते।
दोहरे मानदंड जीवन के, ह्र्दय तल में झूठ खरोश।

डॉ राजीव पाण्डेय
गाजियाबाद

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