

सजन रे झूठ मत बोलो..
शीर्षक की पंक्ति कालजयी फिल्म ‘तीसरी कसम’ के गीत से है।हम सब जानते हैं, यह फिल्म फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ उर्फ ‘तीसरी कसम’ पर आधारित थी।
तो बात यह है, हमारे भारतीय समाज पर फिल्मों का काफी हद तक प्रभाव है और इस बात को कोई भी नकार नहीं सकता। हमारे माता-पिता उस जमाने में पूरे घर- परिवार के साथ फिल्में देखने थिएटर जाते थे। महिनों तक इन फिल्मों के बारे में घर में चर्चाएं चलती थी। मतभेदों को जाहिर करते हुए मुद्दों को गंभीरता से स्पष्ट किया जाता था।मतलब आज से पहले भी घर,बाहर हर जगह फिल्मों के बारे में स्पष्टता से बातें होती थी। रेडियो पर बजते भजन, कीर्तन से सुबह और फिल्मीं गीतों से शुभरात्रि होती थी।
अब आज के दौर में तकनीकी प्रगति के कारण बंद थिएटर से निकलकर फिल्में हमारें हाथों के मोबाइल में समा गई है। अब फिल्मों पर जो चर्चाएं होती है उनका स्वरूप बदल गया है, प्रायोजित माध्यमों से फिल्मों पर चर्चाएं हो रही है, वह भी ठीक है। दूसरा नज़ारा यह भी है कि, फिल्मों से जुड़ा हमारा समाज फिल्मों को लेकर समूहों में बंटकर नफ़रतों की आंधी मे खींचा जा रहा है। इस नफरती आंधी ने तो सच्चाई को जानने की क्षमता लगभग ख़त्म ही कर दी है।
जबकि बच्चों के लिए, महिलाओं के लिए, विद्यार्थियों के लिए तथा अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों पर जो फिल्में बनती है, उनको पुरस्कार मिलने के बाद भी वह कितने दर्शकों तक जाती है या कितने दर्शक ऐसी फिल्में देखते हैं यह भी टटोलना जरूरी है।
व्यावसायिक फिल्मों को देखकर निष्पक्षता से प्रतिक्रिया देना अब दूभर हो गया है। फिल्म देखने के बाद जो लोग कैमरे के सामने आकर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, क्या वह परिपूर्ण होती है? ऐसे काफी मुद्दे है जिनके कारण समाज को चिंतित होने की जरूरत है।
हमारे पास अच्छे साहित्य की कमी न पहले थी न अब है। हमारी संस्कृति के अभी भी ऐसे अनगिनत पहलू है जिनको समझने के लिए गंभीरता की जरूरत है। इस बात की जानकारी हमें ‘कांतारा’ जैसी फिल्म से मिल भी गई है, जो कि हमारे लिए आज एक बहुत बड़ा दिलासा है। ‘कांतारा’ जैसी फिल्म देखकर कलाकारों की मेहनत और आत्मविश्वास का अद्भुत साक्षात्कार होता है। प्रादेशिक सीमाओं को तोड़कर सफलता प्राप्त करने वाली यह फिल्म सचमुच ही प्रशंसनीय है ।मतलब यह भी स्पष्ट होता है कि समाज में दूरियां और झूठ फैलाने के लिए फिल्में बनाने का इतिहास हमारे देश में कभी नहीं था।
फिल्मों को बनाने वाले हमारे पूर्वजों ने पहले से ही यह बात चेतावनी स्वरूप इस गीत में देकर रखी है, जिसपर हमें ध्यान देना चाहिए। “सजन रे झूठ मत बोलो/ खुदा के पास जाना है/ न हाथी है न घोड़ा है/ वहां पैदल ही जाना है” (तीसरी कसम 1966)।
– लतिका जाधव
पुणे

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

संपादक श्री. देवेंद्र सोनी जी,
नमस्कार!
मेरा आलेख प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद!
हमारे भारतीय समाज ,साहित्य और संस्कृति का प्रभाव फिल्मों पर पड़ता है।पुराने जमाने के पिल्में हम परिवार के सभी सदस्यों के साथ एकसाथ बैठ कर देखते थे। मर्यादा को ध्यान में रखकर बनती थी।
लतिका दी का बहुत सुन्दर आलेख।बधाई लतिका दी।🙏🙏🌹