लघुकथा : चश्मा और गॉगल्स – अमृता प्रसाद जगदलपुर

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लघुकथा

चश्मा और गॉगल्स

बेटा,जरा मेरी बात तो सुनो।पिता ने ऑफिस जा रहे बेटे से कहा।बेटे ने परेशानी भरे स्वर में कहा क्या है पिताजी आप भी ना,देर हो रही है ऑफिस के लिए जल्दी बोलिए।पिता ने कहा बेटा वो मेरा चश्मा टूट गया नया बनवा देता तो…अखबार भी पढ़ नहीं पा रहा हूं।
बेटे ने कहा.,”.क्या पिताजी आप भी बच्चों की तरह अपना चश्मा भी नहीं संभाल पाते।अभी महीने का आखिरी चल रहा है आपकी दवा भी लेनी है।अगले महीने ही देखता हूँ।तब तक आप काम चलाते रहिए, बिना अखबार पढ़े ।और बेटा ऑफिस के लिए निकल गया।
रात को खाने के बाद बहू बेटे को अपने धूप का चश्मा दिखाते हुए कहने लगी..समीर देखो आज मैं शॉपिंग पर गई थी,ये गॉगल मुझे बहुत अच्छी लगी मैंने खरीद ली,इसके ग्लास देखो कितनी अच्छी है ना
पूरे बारह सौ की है।
जरा लगा कर दिखाओ बेटा बड़ी अदा से बहू से कह रहा था।बगल वाले कमरे से पिता सब सुन रहे थे।

अमृता प्रसाद
जगदलपुर

जिला बस्तर छत्तीसगढ़

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