लघुकथा : सोच – ज्योति जैन इंदौर

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लघुकथा

सोच

अपनी सारी गुड़ियाओं और टेडी बीयर्स को अपने सामने करीने से लाइन मे सजा कर बैठी पिंकी टीचर- टीचर खेल रही थी। पिंकी स्वयं टीचर की भूमिका में थी और उसके सारे खिलौने स्टूडेंट थे। उसने चेहरे पर झूठ मुठ की गंभीरता ओढ़ ल और हाथों में एक किताब थाम ली। चलो बच्चों…! अपना -अपना होमवर्क दिखाओ…! कह कर पिंकी फिर उन सब को पोयम सिखाने में लग गई। जॉनी.. जॉनी.. यस पापा…!….
तभी दादा जी कहीं बाहर से आए। क्या कर रही है हमारी पिंकी रानी…! कह कर उन्होंने पिंकी को गोद में उठा लिया। दादा जी हम खेल रहे हैं.. मैं बड़ी होकर टीचर बनूंगी।” पिंकी ने बड़ी मासूमियत से कहा।
सुनते ही दादाजी का सारा लाड़ काफूर हो गया। दहाड़ कर उन्होंने पत्नी को आवाज दी… सुनती हो…! साहबजादे को आई.ए.एस. देने को कहा था तो उस पर प्रोफेसर बनने का भूत सवार था.. अब इसे मास्टरनी बनना है। बाप ने मारी मेंढकी और बेटी तीरंदाज… !
फिर पिंकी से बोले– कोई जरूरत नहीं है टीचर बनने की.. समझी..? चलो.. अंदर जाकर पढ़ाई करो।
फिर पत्नी से मुखातिब हुए– सुनो जी …! बहु से कहो लड़की को डॉक्टर इंजीनियर बनाना है तो कोई अच्छा टीचर ढूंढ कर पढ़ाई पर ध्यान दिलाए।

ज्योति जैन
इंदौर

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