काव्य : टीचर्स ड़े – सुनीता मलिक सोलंकी मुजफ्फरनगर

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टीचर्स ड़े

टीचर्स ड़े पर किसे किसे बधाई दूँ
किस ने क्या सिखाया किसे दुहाई दूँ

तरह तरह के मिलते रहे टीचर्स
कुछ भोले भाले और कुछ चीटर्स

कुछ ने अक्षर कुछ ने ज्ञान सिखाया
कुछ ने मनुष्य की पहचान सिखाया

कुछ ने अपना पराये का एहसास
बेगाने अपने, कभी अपने लगे पास

कोई सहेली बनकर सिखा जाती
कोई शिष्या बनकर सीखा जाती

कोई बराबरी करके सीखा जाए
कोई पीछे धकेल कर सीखा जाए

सीख लेना व पाठ पढ़ना सब एक है
मिनटों में लगा बुझा पढ़ा देना अनेक है

कभी – कभी टीचर्स मिले भी भले
उनसे हम कुछ भी ना सीख सके

काॅपी इतनी सुन्दर बना कर रखते
मगर उसमें लिखे अक्षर ना पढ़ते

भर भर काॅपी लगा रखते थे चट्टे
मगर दिमाग खाली पड़े पत्थर बट्टे

ऐ जिंदगी मेरी तो मास्टर तू ही रही है
रोज़ाना दिमाग पर दही जमी रही है

जब भी विश्वास किया के सीख लिया है
हुनर परीक्षा ले आपने नया विषय दिया है

कायदे के काले पन्ने पे लाके छोड़ती
ए.बी. सी. डी. से शुरुआत कराती

मंझले आकार के छात्रा रहे हम
पास करने में निकलता रहे दम

ऐ जिंदगी तू हमसे पार कैसे होगी
तुझे समझने की समझ कब होगी

जिंदगी तेरे सफ़हों की गिनती नहीं
कभी सूची तालिका ही भरती नहीं

सबके टीचर्स है, आदर्श हैं , गुरू हैं
ऐ जिंदगी मेरी जिंदगी तुझसे शुरू है

थी कभी जो नादाँ मासूम अल्हड़पन में
जिंदगी उसे बहुत सिखा गयी बचपन में

कुछ सचमुच होते ही हैं टीचर्स अच्छे
उन्हें न सुनने का लालच कि हम अच्छे

कोई तोहफ़े उन्हें करें लालायित नहीं
पढ़ो, खाओ, पीओ, खेलो सीखो यही

गुरू दक्षिणा देना तुम होकर काबिल
आज सिर्फ वही जो तन्खाह में शामिल

सुनीता मलिक सोलंकी
मुजफ्फरनगर उप्र

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