काव्य : राखी : आल्हा छंद – राजेन्द्र शर्मा राही भोपाल

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राखी : आल्हा छंद

कितना पावन रक्षाबंधन
भाई बहन का यह त्यौहार
बहन लगाती सर पर टीका
भाई चरण छुए हर बार

संस्कार बुनियाद है इसकी
निश्चल मन आपस का प्यार
कितनी सदियां बीत गयी हैं
फिर भी जीवित है व्यवहार

भाई रूठा यदि बहना से
बहना कभी न रूठे यार
कितनी इसमें पावनता है
कितना छुपा हुआ है प्यार

चाहे कितना रहे जरूरी
भाई बहन के जाता पास
मेरा भाई घर आयेगा
बहन लगाती घर पर आस

राखी कहें नेह का बंधन
संबन्धों का है आधार
पश्चिम छल से खो मत देना
आपस का पावन व्यवहार

नवतकनीकें आज दे रहीं
घर घर में पश्चिम में ज्ञान
हम हैं ऋषि मुनियों के वंशज
पालो मत मन में अज्ञान

जब तक रिश्ता मान रहे थे
मर्यादित था सब व्यवहार
दोस्तयार की सोच ला रही
बरबादी घर घर के द्वार

चेनल अखबारों ने खोली
धंधे की नित नयी दुकान
भवन बन गये महल तन गये
अब न कहता कोई मकान

अलगावी सोचों के पोषक
छलते धरती बारम्बार
अब गुलाम ना होने पाये
यह संदेश आज का सार

कल तक थे जो बहना भाई
आज दोस्त बन घूमें यार
यह सब धंधे से आता है
पश्चिम का कपटी व्यवहार

सम्हलो उठो समय अब कहता
जगो अभी से तुम सब यार
कहीं दूसरा छल ना जाये
वेद ग्रंथ गीता का सार।

राजेन्द्र शर्मा राही
भोपाल

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