

कहानी
राखी का डोरा
राखी का त्यौहार पास आ रहा था। करिश्मा की बेचैनी बढ़ रही थी। लीलन अभी तक भी अपने गांव से वापिस नहीं आया था। उसे गए हुए लगभग एक साल होने वाला था लेकिन अभी तक भी हर काम पर उसकी छाप नज़र आती थी। छोटे बड़े सभी काम बिना ना नुकर के वह कर दिया करता था। हर साल राखी भी वही खरीद कर लाता था। करिश्मा अपने काम में लगी रहती तो उसे ही बोल देती। इतनी सुंदर राखियां खरीदकर लाता कि वह देखती रह जाती। त्यौहार हो जाता तो आकर करिश्मा से कहता ,” दीदी, मेरी बहन तो गांव में है। छोटा सा गांव है। डाक खाना भी नहीं है, इसलिए राखी भेज नहीं पाई होगी। आप ही यह डोरी बांध दो मेरे हाथ में।” करिश्मा की आंखें नम हो जाती थी उसकी बात सुनकर। तुरंत डोरी उसके हाथ में बांधकर, माथे पर टीका लगा देती। लीलन खुश होकर काम में लग जाता। संजय ने अपने काम के लिए उसे रखा था लेकिन अपने अच्छे स्वभाव और काम को ना नहीं कहने की आदत ने उसे करिश्मा का भी प्रिय बना दिया था। संजय का अपना बिज़नेस होने से व्यस्तता अधिक रहती थी। यही कारण था कि घर के भी बहुत से काम लिलन कर देता था। कोरोना के कारण संजय का काम बंद हो गया था इसलिए लिलन भी गांव लौट गया। शहर खुलने लगा तो उसका फोन मिलाया लेकिन फोन लगातार बंद ही आ रहा था। संजय ने दूसरे लड़के को काम पर रख लिया था लेकिन करिश्मा को अपने काम खुद ही करने पड़ते थे। लड़का पढ़ा लिखा तो था लेकिन काम में सुस्त था। इस बार अपने भाई के पास भेजने के लिए राखी भी करिश्मा खुद ही खरीदकर लाई थी। राखी के साथ ही उसने एक डोरा भी खरीदा था।
राखी के दिन संजय ने अपनी बहन की भेजी हुई राखी बांधी। डोरा करिश्मा ने भगवान के सामने रख दिया और अपने काम में व्यस्त हो गई। दोपहर को दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो लिलन सामने खड़ा था। उसके हाथ में वैसा ही डोरा था जैसा हर बार अपने हाथ में बंधवाया करता था। करिश्मा की खुशी का ठिकाना नहीं था। लिलन को अंदर बुलाकर पहले डोरा उसके हाथ में बांधा फिर संजय को फोन किया। संजय घर आया तो उसने लिलन से फोन बंद रखने का कारण पूछा। ,” फोन टूट गया था साहेब। सभी नंबर उसमें ही थे इसलिए मैं भी आपको फोन नही कर पाया। मुझे किसी ने बताया कि आपने दूसरे लड़के को काम पर रख लिया है इसलिए गांव में ही काम पकड़ लिया। आज़ दीदी की याद आई तो राखी बंधवाने आ गया।” कहकर लिलन चुप हो गया। संजय और करिश्मा एक दूसरे को देख रहे थे। लिलन ने अपनी जेब से निकालकर सौ रुपए करिश्मा के हाथ में रख दिए। करिश्मा ने रुपए लेकर भगवान के पास रख दिए जहां राखी का डोरा रखा था। ,” लिलन, तुम मेरे ऑफिस में काम करने वाले लड़के ही नहीं हो बल्कि करिश्मा के भाई भी हो। तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता है। खाना खा लो और सीधे ऑफिस में आ जाना।” संजय ने ऑफिस जाते हुए लिलन से कहा। लिलन करिश्मा की और देख रहा था। अपने हाथ में बंधे डोरे को उसने सिर से लगा लिया।,” बहुत कीमती राखी है दीदी। इसके बंधन से जीवन भर मुक्त नहीं हो पाऊंगा।” करिश्मा मुस्कुरा दी। लिलन ऑफिस जाते जाते बोला। करिश्मा ने उसे रोका। ,” लिलन, घर में सब ठीक तो हैं ? कुछ बताया नहीं घरवालों के बारे में, इसलिए पूछ रही हूं।” लिलन का चेहरा उतर गया। थोड़ी देर चुप रहा। ,”दीदी घर में अब कोई नहीं है। मां थी जो कोरोना में चल बसी। बहन ससुराल में है। मां के जाने के बाद मन नहीं लगता था इसलिए आपके पास चला आया।” करिश्मा उसकी बात सुनकर दुखी थी लेकिन जताना नहीं चाहती थी। ,” मैं भी तो तुमसे बड़ी हूं लिलन। मां जैसी ही हूं। तुमने मुझे अपना समझा तो मेरी ज़िम्मेदारी और भी बढ़ गई है। साहेब के पास मन लगाकर काम करो। बिजनेस सीख जाओगे तो अपने साथ साथ अपने जैसे दूसरे लोगों को भी काम दे पाओगे।” करिश्मा की बातों से लिलन के चेहरे पर मुस्कान आ गई। चमकीले राखी के धागों की तरह।
– अर्चना त्यागी
जोधपुर

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
