काव्य : रक्षाबंधन! – सुनीता मलिक सोलंकी मुजफ्फरनगर

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रक्षाबंधन!

बिन भाई, बिन बहन तो रक्षाबंधन नहीं है
रक्षाबंधन मनाने का तो कतई मन नहीं है।।
अन्तर्मन के एहसासों का दरपन नहीं हैं
आज महक रहा मायके का गुलशन नही॔ है।।
फिज़ाओ में आज इस कद़र हैं उदासियाँ
खुशियों भरा आज वो मेरा छुटपन नहीं है।।
भाव और भावना का भी समरपन नहीं है
करने को आज कुछ भी तो अरपन नहीं है।।
तलाशता जिसे है मन! ‘मीना’ वो अब नहीं
हे जन्मदाता!खिला क्यूँ आज चमन नहीं है।।
लड़ते- झगड़ते भी कभी रही अनबन नहीं है
तेरे बिन तेरी बहनें रहती अब प्रसन्न नहीं है।।
तू ऐसा था, तू वैसा था, तू ये कहता था !
इसके सिवा याद अब कोई संस्मरण नहीं है।।
तू जहाँ कहीं है, अब मेरे भाई !खुश रहना
तेरी खुशी के सिवा मांगी और मन्नत नहीं है।।
जो तुझे हमसे हमें तुझसे था वास्ता भाई!
अब कहीं भी दिखता वो अपनापन नहीं हैं।।

सुनीता मलिक सोलंकी
मुजफ्फरनगर उप्र

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