काव्य : प्रज्ञान – सुरेश पटवा भोपाल

प्रज्ञान

धरती पर एक ख़्वाब देखा था,
और चंद्रमा पर साकार किया।

अंतरिक्ष में ऊँचे-ऊँचे उड़ते जाएँगे
हम चाँद तारों को छूकर आएँगे
दुनिया हैरत से देखेगी
हम प्रज्ञान पहुँचाएँगे
हमने मुश्किल को दुत्कार दिया है
धरती पर एक ख़्वाब देखा था,
और चंद्रमा पर साकार किया।

मैया मेरी, चन्द्र खिलौना लैहौं,
मैया बोली रुक जा लल्ला
मैं प्रज्ञान को भेजहों
कान्हा की कल्पना से भी ऊपर
मुश्किलों को भी मैंने पार किया है
धरती पर एक ख़्वाब देखा था,
और चंद्रमा पर साकार किया।

राधा चाँदनी में सुलगती सोचती
हाथ चाँद सा सलोना हाथ ना आया
ना बदला भाग्य का लिखा जाम उठा
प्रज्ञान ने कहा ठहर जा
हमने पूरी ताक़त से प्रतिकार किया है
धरती पर एक ख़्वाब देखा था,
और चंद्रमा पर साकार किया।

गहराइयाँ बहुत आह में
चलना था कठिन राह में
मन भटकता था गाह में
तुम्हारी ख़ातिर ऐ चाँद से मुखड़े
हमने सब स्वीकार किया है
धरती पर एक ख़्वाब देखा था,
और चंद्रमा पर साकार किया।

चाँद अँजुरी में लिये
प्रेयसी मेरे आंगन उतर आई
सुलगती देह पर शीतलता चाई
कब तक बांधूँ अरमानों का बाँध
उसे पाकर स्वप्न साकार किया है
धरती पर एक ख़्वाब देखा था,
और चंद्रमा पर साकार किया।

कान्हा को देख कंस चला आया
पूछा उससे, ऐ नापाक तुझे नहीं चाँद चाहिए
वह बोला नाहक चाँद पे झंडा फहरा रहे
हम तो झंडे पर ही चाँद लहरा रहे
हमने आतंकवाद को अंगीकार किया है
धरती पर एक ख़्वाब देखा था,
और चंद्रमा पर साकार किया।

सुरेश पटवा
भोपाल

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