काव्य : रत्नावली-तुलसी – अंजनीकुमार’सुधाकर’ बिलासपुर

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रत्नावली-तुलसी

देखा जाना तुमको मैं जैसा था
आज विपरीत रुप ले आये हो।
भक्ति भावना से प्रभु समर्पित
लोथड़ के पीछे दौड़े धाये हो।

आह,नाथ यह कैसा प्रमाद है
इतना माया का अनुराग सबल।
यौवन घटिका के प्रति तुम्हारा
देखा था न कभी सम्मोह प्रबल।

क्या निमित्त खभारु मान थे गाते
चारुवाक से राम कथा का गायन?
जठर अग्नि की क्षुधा बुझाने को
सुनाते थे क्या बाल्मीक रामायण?

इतना शुष्क हृदय होगा स्वामी
रत्नावली को था भान नहीं हुआ!
हाड़ मांस के लोथड़ में अटके को
था हृदय हमारा क्यों नहीं छुआ?

धिक्कार मुझे जो स्वामी तुमको
भक्ति धर्म पथ पर मैं ला न सकी।
भव सागर से पार उतर पाने का
स्वामी धर्म मर्म मैं समझा न सकी।

क्या रखा इस माटी की काया में
क्या रखा यौवन के मधुशाला में?
अपने अंदर का शिवत्व जगाओ
जीना सीखो विष कंठ हाला में।

ज्ञान चक्षु खुले थे तब तुलसी के
राम के प्रति भक्ति राग जागा था।
सदगुरु विदुषी पत्नी पाने वाला
श्री राम दास तुलसी बड़भागा था।

रत्ना-हनुमंत प्रेरण,शिव कृपा से
धरा राम पद कमल तुलसी माथा।
सनातन की अलख जगाये तुलसी
लिख स्वांतः सुखाय रघुनाथ गाथा।

अंजनीकुमार’सुधाकर’
बिलासपुर

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