

कहानी
आ अब लौट चलें
“क्या है यार! इस घर में शांति से आदमी अखबार भी नहीं पढ़ सकता! जब देखो तब हिहि खिखि की आवाजें आती रहती हैं।” मैं झुँझलाया हुआ बड़बड़ाया। अखबार हटा कर देखा तो मेरी सुनने वाला कोई भी नहीं था। वही मेरे कमरे की मटमैली सी दीवारें जिनपर मेरी पत्नी ने न जाने क्या सोचकर अपनी कला दिखाने की कोशिश की थी। आज सोच लिया था कि मेरे अनुसाशन की अवेहलना करने वाले अपने बच्चों को सबक सिखा ही दूँ। उन्हें एहसास करा दूँ कि ये मेरा घर है।मेरे नियमों से चलना है तो ठीक वरना अपना ठिकाना ढूंढ लें।
उठकर बच्चों के कमरे की तरफ बढ़ा तो देखा दरवाज़ा आधा खुला है। अंदर बेटा और बहू एक दूसरे को मज़ाक में छेड़ रहे हैं और जोरों से हँस रहे हैं।
” भला ये भी कोई उम्र है इस सबकी। इनके कद के इनके बच्चे हो गए हैं। जिंदगी इतनी कठिन है मगर जब देखो तब खिसियानी बिल्ली की तरह दाँत दिखाते रहते हैं। हुह!” मैं फिर मन ही मन कुढ़ रहा था। थोड़ी नज़र घुमाई तो मीरा भी बच्चों के कमरे में ही दिखाई दी। बच्चों के साथ वो भी मुस्कुरा रही थी।मगर ये क्या! आज पहली बार उसकी आँखों पर ध्यान गया। बिल्कुल सूनी थी। अंधेरी रात के आसमान जैसी।
वो आँखें! उनसे अनजान तो नहीं था मैं। ओस की बूंदों सी भरी भरी वो आँखें मुझे पहली नज़र में ले डूबीं थी। मगर इतने गौर से मैंने शायद एक लंबे अरसे बाद देखी थीं वो आँखें। न जाने आज क्यों ऐसा लगा जैसे मैं आज भी उनमें डूब जाऊँगा। प्यार से नहीं ग्लानि से।
“मुझे क्यों इतनी खिन्नता होती है?” खुद में उलझा वापस अपने कमरे में अखबार लेकर बैठ गया। पर अखबार में मुझे कोई अक्षर समझ नहीं आ रहा था। मीरा की आँखों के सूनेपन की खाई में डूबता जा रहा था मैं।
मैं खो रहा था कहीं..40 साल पहले..
“सम्राट बेटा! तुम्हारे पिताजी ने तुम्हारा रिश्ता पक्का कर दिया है। मीरा नाम है लड़की का। ये देख ले उसकी तस्वीर। सुंदर है न! अच्छी पढ़ी लिखी है। हमारे बिज़नेस पार्टनर की बेटी है। तू मिलना चाहे तो बता। मैं पिताजी से बात करती हूँ। वैसे परसों रोके की रस्म हो जाएगी।” माँ ने उत्साहित होकर मुझसे पूछा था।
तस्वीर देखकर मैं मुस्कुराना चाहता था।मगर माँ न देख ले इसलिए स्थिर रह गया। “ठीक ही है माँ! पिताजी ने पसन्द किया है तो सोच समझ कर ही किया होगा। मुझे नहीं मिलना। आप जैसा समझें वैसा करें।” कहकर मैं तस्वीर माँ को ही थमाकर फैक्ट्री निकल गया।
नियत तिथि पर ब्याह भी हो गया। घूँघट ओढ़े मीरा मेरी दुल्हन बनकर आयी। सब रस्में होने के बाद हमारी पहली रात पर ही हमारी पहली मुलाकात हुई। (आखिर उस समय का यही रिवाज़ था!) मैं कमरे में घुसा तो वो घूँघट ओढ़े ही बिस्तर पर बैठी थी। कमरे में चारों तरफ बिखरे फूलों को देखकर ही मेरा मन खिन्न हो उठा था। मुझे बिखराव बिल्कुल पसंद नहीं। ये बिखरे फूल जैसे कांटे बनकर चुभ रहे थे मुझे। पर फिर मैंने खुद को रोक लिया।
“इस सब की जरूरत नहीं है। अबसे हम पति पत्नी हैं तो हम में कैसा पर्दा! मगर ये मत समझना कि तुम्हें सारे हक़ दे दिए। तुम्हें मेरे लिए पिताजी ने चुना है। इसलिए उनकी और माँ की सेवा में कोई कमी मत रखना। मैं और माँ जैसा कहें वैसा करती रहोगी तो तुम्हारे लिए इस घर में रहना आसान हो जाएगा। हटाओ ये घूँघट! तुम शहर के जाने माने बिजनेसमैन रोशन चावला की बहू हो।” कहते हुए मैंने मीरा का घूँघट हटाया तो मैं उसकी चमकती आँखों में डूबकर रह गया।
अगले ही पल अपनी क्षुधा मिटा कर अपने हिस्से का बिस्तर साफ कर मैं सो गया। अगली सुबह मेरी आँखें खुलीं तो मीरा गीले बाल सुखाते हुए गुनगुना रही थी। धीमी सी आवाज़ में भजन चल रहे थे। मगर मुझे अच्छा नहीं लगा। पहला दिन और मेरी मर्ज़ी के बिना उसने मेरे रेडियो को हाथ लगाया।
“यहाँ तुम्हारे बालों में उलझने वाला कोई नहीं है। बंद करो ये राग। मेरी चाय कहाँ है? अभी तक क्यों नहीं आयी? माँ!!!” मैं बेचैन सा होकर चिल्ला रहा था।
” ज..जी मैं अभी लाती हूँ।” मीरा सकपकाई सी दरवाज़े की तरफ भागी। दरवाज़ा खोलते ही रामू काका चाय की ट्रे लिए सामने खड़े थे।
“बहुरानी! मेमसाब ने आप दोनों के लिए चाय भेजी है। मैं काफी देर से खड़ा था। समझ नहीं पा रहा था कि दरवाज़ा खटखटाया जाए या नहीं।” रामु काका की आवाज़ में खौफ़ साफ झलक रहा था।
मगर ये क्या! मीरा ने झुककर उनके भी पैर छू लिए। मुस्कुराते हुए ट्रे पकड़ ली और कहते हुए मेरी तरफ मुड़ गयी कि कोई बात नहीं काका! मैं बस आ ही रही थी। अबसे आपकी ये जिम्मेदारी मेरी हुई। रामु काका आशीष देते हुए जा चुके थे।
मैं गुस्से से तमतमा उठा था। “वो घर के नौकर हैं।तुम्हारे ससुर नहीं जो उनके पैरों में गिर गयी। यहाँ महान बनने की कोशिश भी मत करना। इस घर के कुछ कायदे हैं।”
उसके चेहरे पर संयम था। चाय पकड़ाते हुए उसने कहा था-” अच्छा ठीक है जनाब। आगे से गलती नहीं होगी। आप अपनी चाय पीजिए। ठंडी हो रही है।”
“वैसे उम्र में वो हमारे पिता की उम्र के हैं। उनका आशीर्वाद न जाने कब कहाँ फल जाए..! खैर आप तैयार हो जाइए। मैं माँ जी के पास जा रही हूँ।” अपनी बात कहते हुए वो चली गयी थी। मैं उसकी बेबाकी से भी चिड़ गया था। उसमें वो संजीदगी ही नहीं थी जो मेरे रौब को समझे। अपनी बात रखने में ज़रा भी नहीं हिचकी।” पर चलो! कहाँ तक जाएगी! ये मेरा घर है।”
मैं तैयार होकर नीचे पहुँचा तो बड़े करीने से वो डाइनिंग टेबल पर खाना सजा रही थी। उसे देखकर लग ही नहीं रह था कि आज यहाँ उसका पहला दिन था।
” ये सब क्या है! मेरे ब्रेड ऑमलेट कहाँ हैं? ये सुबह सुबह इडली डोसा वड़ा..ये पराँठे..एक ही परिवार का खाना बनाना था।” मैं झल्ला रहा था पर माँ ने चुप करा दिया।
“आज बहु का पहला दिन है। हमारे हिसाब से तो उसे उम्र भर चलना है। आज के लिए उसकी पसंद का उसका बनाया हुआ नहीं खा सकता! और ये कैसे बात कर रहा है तू अपनी पत्नी से! क्या यही सिखाया है मैंने तुझे!” माँ की आवाज़ में शिकायत थी।
“अच्छा ठीक है! अब कुछ नहीं कहूँगा आपकी बहु को। पर इसे समझा दो कि मैं कैसा हूँ। मेरे टाइम टेबल के हिसाब से कुछ न हो तो मेरा दिमाग खराब हो जाता है।” मैं कनखियों से मीरा को घूरता हुआ माँ को शांत करा रहा था। अपने गुरुर को भी!
उसके बाद धीरे धीरे मैं मीरा को हर चीज़ अपने हिसाब से करने के लिए टोकता रहा। सब मेरे हिसाब से होने भी लगा था। मेरे नियम कायदों के हिसाब से उसका उठना बैठना,खाना पीना..सब कुछ। वो अपने अंदाज में बगावत भी करती।लेकिन मेरा अहम मुझे झुकने नहीं देता। जिंदगी अपनी पटरी पर दौड़ रही थी। और मैं अनवरत जारी था अपने स्वभाव के साथ। बच्चे हुए तो मैंने ज्यादा खुशी या लाड़ प्यार ज़ाहिर नहीं किया। मुझे डर था कहीं बच्चों को मेरी कमज़ोरी समझ मीरा मेरी मुठ्ठी से न छूट जाए।हालांकि उसे तड़पाने का कभी कोई इरादा नहीं था।कभी भी नहीं! लेकिन कोई भी मेरी कमज़ोरी बने, ये मुझे मंजूर नहीं हुआ।
फिर कुछ साल बाद पिताजी गुज़र गए। मैं रोया नहीं। मर्द कभी रोये,ये उसे शोभा नहीं देता।वो मेरे आदर्श थे।बचपन में छुपछुप कर मैं उनकी नकल करने की कोशिशों में लगा रहता था।जानता था कि वो मुझसे उम्र में भी बड़े हैं।मगर मुझे हमेशा उनसे एक कदम आगे या ऊपर रहने की होड़ सी थी।अब मुझे पिताजी के नाम को और बड़ा बनाने की धुन सवार हो चली। मैंने खुद को अपने बिज़नेस को सौंप दिया। जूते की एक फैक्ट्री मेरी लग्न से प्रोडक्शन में चार गुना हो चली थी। और भी कई शाखाएँ खोलने की तैयारी थी। मीरा के पिता के साथ पार्टनरशिप अब प्राइवेट कंपनी में तब्दील हो चुकी थी। उन्होंने शेयर्स मीरा के नाम कर रिटायरमेंट ले लिया।
कभी कभी समय निकाल कर बच्चों के साथ कुछ पल बिताता तो एकदम से सालों बड़े लगने लगते। मुझे अच्छा लगता उनकी मासूम शरारतों को देखना। मगर पिताजी का सिखाया अनुशासन मैं उनमें भी देखना चाहता। इसलिए अधिकतर सख्त बना रहता। मुझे याद है कभी कभी थककर आते ही बिटिया रागिनी अपने भाई समर की शिकायतों का पुलिंदा लेकर बैठ जाती। मैं सब अनसुना करके भी सुनने की एक्टिंग करता और आखिर में समर को थोड़ा डाँट कर रागिनी का हीरो बन जाता। समर मुझसे डरता था और मुझे अच्छा लगता क्योंकि यही सीखा था हमनें। पिता का सम्मान भी तो यही होता है! बेटा बाप के सामने जुबान चलाये तो बाप होने का मतलब ही क्या है! एक चीज़ जो मुझे तकलीफ देती वो यह थी कि समर मेरी तरह पितृभक्त नहीं था। मैंने कभी उसे चुपके से भी मेरी नकल करते नहीं देखा।मेरा मन तड़पता था उसका आदर्श बनने को।
मैं शायद 40 बरस का रहा होऊंगा जिस दिन अचानक सेव मुझे हार्ट अटैक आया। चार दिन बेहोश रहा। मीरा ने न जाने कैसे मुझे और बच्चों को अकेले सम्भाला। एक महीना घर पर रहकर समय काटना पड़ेगा ये सोचकर ही मुझे कोफ़्त होने लगी।ऊपर से ये पतिव्रता स्त्री की सेवा का बोझ दिल पर रखना।उफ्फ! मुझे याद है मैं तीसरे दिन ही नहा धोकर फैक्ट्री जाने को तैयार खड़ा था। मीरा ने मुझे रोकने की बहुत कोशिश की। मगर मैंने उसकी एक न सुनी। बिना खाना खाये मैं फैक्ट्री आ गया।
काम करते करते जब भूख लगी तो सामने मीरा को टिफ़िन लिए खड़े पाया। चुपचाप मेरा खाना परोस कर वो चली गयी। मैंने भी कुछ नहीं कहा। आखिर मैं भी गलत नहीं था। मेहनत नहीं करूँगा! कमाऊंगा नहीं तो पिताजी का खड़ा किया बिज़नेस कैसे सम्भालूँगा!इकलौता बेटा हूँ उनका। इतना सोचकर उन्होंने मेरा नाम सम्राट रखा। कैसे इसे सार्थक कर सकूँगा! आखिर हर बेटे का कर्तव्य होता है अपने पिता के नाम को आगे ले जाना। ये अलग बात है कि मैं आने पिता जैसा नसीबवाला नहीं।
अगले दिन से घर पर भी सब शांत था। मैं रोज़ फैक्ट्री आता। मगर अब मुझे फ़ीकी चाय और ओइलफ्री स्नैक्स दिए जाने लगे। मैंने पूछा तो पता चला मीरा मैडम सख्त हिदायत देकर गईं हैं। वो शायद पहली बार था कि मुझे गुस्सा नहीं आया। मीरा का हक़ जताना मुझे बुरा नहीं लगा क्योंकि मेरी जीभ का स्वाद दवाइयों ने इतना कडुआ कर दिया था कि अब साधारण खाना ही अच्छा लगने लगा था। परहेज़ करना तो अब रूटीन ही बन गयी थी।
आज..
” चाय नहीं पी अभी तक आपने? ठंडी हो गयी है! गर्म कर लाऊँ?” मीरा की आवाज़ कानों में पड़ी तो अतीत का शीशा तोड़कर बाहर आया।
“कोई बात नहीं। इतनी ठंडी नहीं है।अभी पी लेता हूँ।” आज पहली बार शायद मैंने ये जवाब इतने संयम से दिया।
“तबियत ठीक है आपकी? आज आपकी पसंद की मटर मशरूम बनाई है। आप नहा लीजिए। मैं तबतक खाना लगवाती हूँ।” कहकर मीरा बहु को आवाज़ लगाने लगी तो मैंने टोक दिया।
“लेकिन तुम्हें तो मशरूम सूट नहीं करता न! तुम मत खाना।” मैंने फिक्र से कहा तो वो हैरानी से मुझे देख रही थी। मैं उन आँखों में देख नहीं पाया।
मुझे याद आ रहा था वो पल जब मशरूम से उसे एलर्जी हुई थी और डॉक्टर के पास ले जाने की बजाय मैंने उसे चार बातें और सुनाई थीं। फिर अपना बैग उठाकर फैक्ट्री चला गया था। माँ ने ही कोई दवा देकर उसे आराम करने भेज दिया था। उसने तब भी शिकायत नहीं की।जहाँ तक याद आता है, उसने भी हमेशा वही सब खाया जो मुझे पसंद था या बच्चों को। उसे क्या पसन्द था और क्या नापसन्द, कभी गौर ही नहीं किया। अब याददाश्त पर जोर डालता हूँ तो अजीब लग रहा है। मुझे उसके बारे में शायद कुछ भी नहीं पता।
हमारी शादी जरूर हुई थी।लेकिन हमारा मिलन तो मिराज जैसा था। वो रेतीली मिट्टी सी। जिसे मैं अपनी मुठ्ठियों में बंद रखना चाहता था मगर ढाल पाया या नहीं ये अभी तक तय नहीं कर पा रहा। उसके लिए मैं पानी सा था जिसमे वो कभी घुल ही नहीं पाई। उसने अपने चारों ओर एक शीशे की दीवार बना ली थी जिसमें से वो दिखती तो थी लेकिन मैं उसके मन तक पहुंच नहीं पाता था। बड़े होते बच्चे और बढ़ती जिम्मेदारियों ने हममें और दूरी बढ़ा दी।लेकिन दूरियाँ तो वहाँ होतीं हैं जहाँ नजदीकियाँ हों।
मैं सिर्फ मेरा था। कभी उसका हुआ ही नही। उसने तो बिना किसी शर्त के हमेशा मेरा साथ दिया।मूक रहकर भी।बच्चों और मेरे बीच कितनी ही बार उसने सेतु बनने की कोशिश की। मगर बच्चों से शारीरिक दूरी कब मानसिक बन गयी, मुझे पता ही नहीं चला।सच कहूं तो ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ा क्योंकि वो अपनी अपनी जिंदगी के गणित में उच्चस्तरीय थे। एक पिता को और क्या चााहिये! कभी गौर ही नहीं किया कि इसके पीछे मीरा की मेहनत थी। मैं अपने काम में व्यस्त था और वो अपने परिवार में।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मैंने पिता होने का कोई फ़र्ज़ नहीं निभाया।समय पर बच्चों की फीस मीरा को देना। कभी कभार बिज़नेस टूर के साथ ही बच्चों को अलग अलग जगह घुमा देता।हालांकि मैं उनके साथ समय नहीं बिता पाता। मगर उनके आराम और घूमने फिरने का पूरा इंतजाम कर देता।
“मगर मैं ऐसे क्यों सोच रहा हूँ! मैंने किया न अपना फ़र्ज़ पूरा! मीरा के प्रति भी।” ये विचार मेरे अंदर भूचाल मचा रहा था।
“मैं क्यों ग्लानि से भरा जा रहा हूँ। रागिनी ने अपनी मर्ज़ी से शादी की। बात बात पर रागिनी मुझे मतलबी कह देती थी। समर ने मेरा बनाया बिज़नेस जॉइन करने की बजाय नौकरी करना मंजूर किया। उसके नज़रिए में भी मैं एक खडूस और अक्षम पिता था।वो कौनसे आदर्श बच्चे हैं! ” मेरे मन में विचारों का अंतर्द्वंद्व चालू हो गया था।
“और मीरा! उसने भी कहाँ मुझे समझा। हाँ मानता हूँ कि एक आदर्श बीवी की तरह उसने अपना हर फ़र्ज़ निभाया। मगर क्या सिर्फ औरत का काम वहीं खत्म हो जाता है! मैं ही चाहता था वो मॉडर्न गृहणी बनकर मेरे साथ बिज़नेस पार्टीज में चले।मेरे पैसे पर मेरे हिसाब से ऐश करे। मगर वो तो भजनों में खोई रहती। हमेशा साड़ी में लिपटे रहना ही भाता उसे। पैसे उड़ाने के नाम पर न जाने कौनसे अनाथालय और वृद्धाश्रम को दान कर देती। और सबसे ज्यादा परेशानी तो मुझे उसके फालतू कलाकारियाँ करने से थी। कभी दीवारों पर।कभी टूटी फूटी चीज़ों पर। मुझे याद आ रहा था शादी के कुछ सालों बाद तक भी उसने मुझे वो बड़े बड़े हैंडमेड कार्ड्स दिए थे। मैं उन्हें देखकर हैरान भी होता।मगर हर किसी का अपना टेस्ट होता है! मुझे इस सब में कोई टेस्ट नहीं आता। भला आता भी कैसे! जब भी कोई सालगिरह मुझे याद रहती या कराई जाती तो मैं उसके लिए महंगे से महंगे गिफ्ट्स लाता।विदेशी खुशबुओं से उसे लबालब कर देता। मगर बदले में ये कागज़ के टुकड़े पाकर मुझे लगता जैसे किसी ने आसमान से खींच कर मुझे जमीन पर पटक दिया।
आज..
“नहाए नहीं अभी तक! मुझे भी भूख लग आयी है। चलिये खाना लग रहा है। मुझे फिर बालश्रम जाना है।”बहुत सालों बाद आज मीरा के ये शब्द कानों में पड़े।
शून्य से निकलकर ध्यान दीवार पर गया जिसपर मीरा ने कृष्ण राधा की झूले पर झूलती पेंटिंग बनाई थी।राधा कृष्ण के कंधे पर सिर टिकाए कृष्ण की बाँसुरी सुनती।मग्न सी! बिल्कुल ऐसा लगता जैसे अभी बोल पड़ेगी। मैं उनमें स्वयम को ढूंढ रहा था।मेरी मीरा मुझमें मग्न।जैसे मुझसे कुछ पूछना चाहती हो।जानना चाहती हो कि ये कौनसी धुन है जिसमें मैं आजतक खोया रहा।
” हम्म! तुम लगाओ खाना।मैं बस पाँच मिनट में नहाकर आता हूँ।आज साथ बैठकर खाएँगे।” आज पहले की तरह जल्दी मचाने का दिल नहीं किया।
हमने साथ बैठकर खाना खाया। उसके चहरे पर नज़र गयी तो मुस्कान फैली थी। साठ साल की बुढ़िया की झुर्रियां न जाने कितने गम समेटे चेहरे पर बिछी पड़ी हैं। देखकर न जाने आँखों के कोने कब गीले हो आये। लेकिन मैंने फिर छुपा लिए।मेरी भावुकता उसे न दिख जाए इसलिए। मैं फैक्ट्री के लिए तैयार होने लगा तो उसे बहुत समय बाद गुनगुनाते हुए सुना। भजन था कोई मीरा और कृष्ण का।सुकून सा लग रहा था कानों को।
“कहो तो आज मैं साथ चलूँ?”मैंने नज़रें चुराते हुए पूछा तो वो अनमनी सी होकर मुझे देखती रही।
“नहीं! मैं चली जाऊँगी ड्राइवर के साथ।” उसने स्वाभिमान से कहा और चेहरे के आते जाते भावों से एहसास हुआ कि वो मुझसे इतनी दूर जा चुकी है जहाँ से लौट पाना अब शायद मुमकिन नहीं।
मेरे अहम को चोट लगी उसकी न सुनकर। लेकिन उसके स्वाभिमान के आगे हार जाना मुझे आज भी कुबूल नहीं।
“ठीक है फिर! मैं रास्ते में तुम्हें छोड़ दूंगा। आते वक्त ड्राइवर को बुला लेना।” अपना निर्णय सुनाते हुए मैंने अपनी गाड़ी का दरवाजा उसके लिए खोल दिया।
गाड़ी में काफी देर सब शांत रहा।मैं उसके चेहरे पर भावशून्यता देख कर दर्द महसूस कर रहा था। इतने समय बाद वो मेरे साथ अकेली सफर पर निकली थी। पर जैसे अब उसे इस सबकी कोई इच्छा ही नहीं थी।
अचानक मुझसे ज़ोर से ब्रेक दबा तो मेरी छटपटाहट को भी ब्रेक लगा। देखा तो हम दोनों का हाथ एक दूसरे को आगे गिरने से बचाने के लिए आगे बढ़ा था। उम्मीद जगी कि भावशून्य चेहरे के पीछे एक दिल आज भी खुद से ज्यादा मेरी फिक्र करता है।
“ठीक हैं आप?”उसने हाथ वापस खींचते हुए पूछा।
” हम्म! सॉरी गलती से ब्रेक लग गया।” मैंने भी नज़रें फेर लीं।
“सुनिए! अब उम्र हो गयी है आपकी। गाड़ी खुद मत चलाया करो। बिज़नेस से भी रिटायरमेंट ले लेना चाहिए आपको। ” उसने फिर एक रिस्ता ज़ख्म छेड़ दिया था।
मगर आज मैं अपने परिवर्तित नज़रिए को कायम रखना चाहता था। पहले तो नालायक बेटे को इल्ज़ाम देते ही वो चुप हो जाती थी। लेकिन आज मैंने गेंद उसके पाले में डाल दी।
” मेरा सहारा कौन है आखिर? इतनी मेहनत से पुश्तों से ये बिज़नेस कर रहे हैं हम। कैसे छोड़ दूँ? कोई लायक उत्तराधिकारी मिलेगा तो छोड़ दूँगा।” शांति से जवाब दिया तो मीरा का चेहरा भी नहीं उतरा और मेरा मन भी भारी नहीं हुआ। मीरा को बालाश्रम छोड़ मैं फैक्ट्री पहुंच गया।
फैक्ट्री में अब ज्यादा काम नहीं देख पाता मैं। बेटे ने तो नौकरी पकड़ कर मुझसे हाथ जोड़ लिए थे। मगर मेरी पसंद की हुई मेरी बहु अक्सर फैक्ट्री आकर जायज़ा ले लेती है। मैं अक्सर ये सोचता कि ये अपने पति को मेरे तानों से बचाने की कोशिश है इसकी।मगर आज ध्यान दिया तो जाना कि उसे फैक्ट्री के काम की सारी बारीकियाँ पता हैं। एकाउंट्स को भी बखूबी चेक और टैली करती है। शाम तक मैं भी थक गया था।पर ये ख़यालों की पटरी से हकीकत तक पहुंची रेल फिर ख़यालों में डूब जाने को बेताब थी। ड्राइव करने का मन नहीं था इसलिए बहु को बोलना बेहतर समझा।
“अराधना बेटा! आज साथ घर चलेंगे।” मेरे ये वाक्य न जाने क्यों आराधना बहु को डरा गए थे।
” ठीक है पापाजी। मुझे रास्ते से विहान को पिक करना है उसकी टेनिस क्लास से। ममा को बोल दूँ आप जल्दी आ रहे हैं? वो खुश हो जाएंगी।” आराधना ने इतने विश्वास से मुझसे बात की कि मुझे मीरा की बेबाकी याद आ गयी।
“नहीं।आज उसे सरप्राइज देते हैं।” मैं कहकर मुस्कुरा दिया।
आराधना भी मुझे असमंजस से देख रही थी। बासठ बरस के इस बूढ़े ससुर को इस तरह आत्मीयता से बात करते कभी नहीं देखा था उसने। मैंने भी शायद आज ही हिम्मत की थी उसे यूँ टोकने की। वरना वो अलग और मैं अलग आते जाते थे एक ही ऑफिस में। हम साथ बैठे तो सब शांत था।थोड़ी देर में विहान को पिक किया। मेरा नौ साल का पोता जिसके साथ मैं सबसे ज्यादा समय बिताता था,आज मुझे देखकर बहुत खुश हुआ।
“दादू! पहली बार आप मुझे लेने आये हो।पार्टी तो बनती है।एक एक आइसक्रीम हो जाए!” विहान चहक कर बोला तो आराधना उसे चुप कराने लगी।
“जरूर बेटा! आज मैंने अपने दिल में बसे बच्चे को नहीं रोका। हम तीनों ने अपनी कुल्फी खाई। मेरा मन था कि मीरा के लिए भी ले चलूँ मगर समझ नहीं पा रहा था उसे कौनसी पसन्द होगी।
“भैया एक स्ट्रॉबेरी कप पैक कर दीजिए और एक चॉकलेट ब्रिक दे दीजिए।”आराधना ने मुस्कुराते हुए मुझे देखकर कहा। लग रहा था जैसे वो मेरा मन पढ़ रही थी।
हम घर पहुँचे तो मीरा कुछ बुन रही थी। अब भी भजन सुन रही थी। मुझे एहसास हुआ कि अब वो शांत होकर भगवान में ही ज्यादा ध्यान लगाने लगी है।शायद मुझसे मिली अपेक्षा ने उसे ऐसा बना दिया। मन भारी हो रहा था।
“अरे आप! आज 6 बजे घर आ गए! तबियत ठीक है न!” मिश्रित से भाव लिए उसने मेरा माथा छूने को हाथ बढ़ाया। ये भी आखिरी बार शायद बहुत साल पहले ही हुआ था। वरना तो रात 11 बजे आकर वो चुपचाप मुझे खाना परोस कर सोने चली जाया करती। कितनी ही बार बेवजह झिड़का था मैंने उसे ये कहकर कि
” बच्चा नहीं हूँ मैं। ठीक हूँ। थका हुआ हूँ।सोना चाहता हूँ।खाना खाकर।तुम परेशान मत करो।”
कभी समझा ही नहीं था उसकी बेचैनी को, उसकी कद्र को।लेकिन आज न जाने क्यों मन किया कि उन कद्र में उठते हाथों को चूम लूँ। फिर याद आया बहु और पोता भी साथ हैं। इसलिए बस हाथों में उसका हाथ लेकर प्यार से कहा-
” सब ठीक है। अबसे जल्दी ही आया करूँगा। तुम ही कहती हो बुजुर्ग हो गया हूँ।” सब मुस्कुरा रहे थे।
आराधना ने मीरा को कुल्फी दी तो कितनी उछल कर उसने ढक्कन खोला था।
“थैंक यू बेटा! बहुत दिन से मन था।” कहते हुए वो चम्मच चाट चाट कर खाने लगी।
“ममा मैंने नहीं पापाजी ने ली है आपके लिए। उन्हें थैंक यू बोलिये।” बहु ने शरारत भरी नजरों से मुझे देखा तो मैं झेंप गया।
“हाँ दादी! दादू की ट्रीट थी ये।” विहान की बातें माहौल में मुस्कुराहटें बिखेर गईं।मीरा की आँखों के कोर जैसे भीग से गये थे। मैंने देखा था उसे उन बूंदों को हँसी में छुपाते हुए।
रात डिनर भी बच्चों के साथ बैठकर किया। समर तो चुप था। पर अपने परिवार के साथ यानी विहान और अनुराधा के साथ कभी कभी मेरे सामने भी चुहलबाज़ी करता रहा। कोई अकेला और शांत था तो वो थी मीरा।हल्के से मुसकुराती मगर उदासीन सी। मैंने ठान लिया था कि ये समा अब बदल कर रहेगा।
रात ख़यालों में ही कट गई। आत्ममंथन जारी था। ये मुझे एकदम क्या हुआ! क्यों मुझे आज वो सब दिखने लगा जिसे मैं आजतक नहीं देख पाया था या शायद देखना ही नहीं चाहता था।वो एक पल मुझे इतना क्यों खटका जिसमें मेरा पूरा परिवार खुश था लेकिन मेरे बगैर।मुझे हारा हुआ सा क्यों महसूस हुआ!आज भी मैं नहीं हारना चाहता था। अपने बेटे की अच्छे पिता की छवि से, अपने से बेहतर पति की छवि से। क्या मैं सचमुच मतलबी और खडूस हूँ! क्या मेरे आदर्श निराशावादी हैं। लेकिन मैं सुधरना चाहता हूँ। ये भी जानता हूँ कि इंसान तभी बदलता है जब वो दिल से बदलना चाहता है।समझना चाह रहा था कि शुरुआत कहाँ से करूँ। मीरा का चालीस साल का दर्द कितने समय मे दूर कर पाऊंगा! कभी डर जाता कि जिंदगी भर काम करने की लत है।घर में कैसे रह पाऊंगा! अगर मीरा अब मुझे अपना न सकी तो ये तन्हाई मुझे मार ही डालेगी।मगर अब मैं जीना चाहता हूँ।अपने परिवार के साथ।मैंने निर्णय लिया कि धीरे धीरे मैं अपने व्यवहार में बदलाव लाने की कोशिश जरूर करूँगा। रात आंखों में ही कट गई।आज फैक्ट्री जाने का भी मन नहीं था। इसलिए चुपचाप आँखें बंद कर लेट गया।
कहते हैं वक़्त हर जख्म का मरहम होता है। मैं अपना वक़्त देकर मीरा के सारे घाव भर देना चाहता हूँ। मुझे लेटा देख मीरा मेरे पास आकर मेरा माथा छू रही थी। माथा ठंडा लगने पर उसने मेरे सीने पर हाथ रखा। शायद मेरी धड़कनें सुन रही थी। अनायास ही मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गयी जिसे देख वो हड़बड़ा गयी।
“आज वॉक पर नहीं गए। सब ठीक है? कोई परेशानी?” झिझकते हुए उसने पूछा तो मुझे उसकी मासूमियत पर बहुत प्यार आया।
“हम्म..सब ठीक है। बस आज उठने का मन नहीं था। आज कुछ जरूरी भी नहीं है फैक्ट्री में। इसलिये छुट्टी करने की सोच रहा हूँ।” मेरे इतने से कहने भर से मीरा विस्मित सी मेरा चेहरा पढ़ने लगी।
“क्या हुआ? छुट्टी नहीं ले सकता! तुमने ही तो कल कहा था मैं बुजुर्ग हो चला हूँ।” मैंने उसे छेड़ दिया।
“म..मेरा वो मतलब बिल्कुल नहीं था कल। आप तो दिल पर ले गए।”वो सफाई देने लगी तो मैंने बीच में ही टोकते हुए कहा-
“चिंता मत करो।मेरा भी घर परिवार है ये।आज विहान के साथ खेलना चाहता हूँ। तुम्हारे साथ समय बिताना चाहता हूँ..।”
“आज अचानक!” मीरा कहे बिना रह न सकी।मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था।आखिर बदलाव लाने की ताकत एक पल में ही होती है।वो एक पल जिसकी एहमियत हमें सही वक्त पर समझ आ जाये तो जिंदगियां बदल जाया करती हैं।वो एक पल मेरे लिए कल था। उस एक पल में तुम्हारी आँखों में बसी तन्हाई मुझे झकजोर गयी। उस पल मुझे समझ आया कि मेरा जीना आजतक व्यर्थ था।हर इंसान परिवार के लिए ही तो जीता है। लेकिन परिवार के साथ ही न जीया तो सब बेकार है। जिंदगी मौत के करीब बढ़ रही है तो ये समझ आ रहा है कि धनदौलत से हम दुनिया तो खरीद सकते हैं मगर सुकून नहीं।
“सचमुच आप ठीक हैं? मैं निम्बू पानी बनाकर लाती हूँ। वो..आपकी धड़कनें बहुत तेज़ थीं। आराम मिलेगा।” मीरा उठकर जाने लगी तो मैंने हाथ पकड़ कर रोक लिया।
“नहीं चाहिए। कहा न ठीक हूँ। बस थोड़ा थक गया हूँ।” मैंने उसका ध्यान घुमाने के लिए कह दिया।
“थकावट तो होनी ही थी। अब उम्र के इस पड़ाव पर भी सिर्फ काम पर ध्यान रहता है आपका। अपनी सेहत पर तो कभी ध्यान ही नहीं दिया। चलिये फ्रेश हो जाइए! मैं आज आपके पसन्द का खाना अपने हाथ से बनाउंगी।” मीरा के गुस्से में छिपा प्यार आज दिल तक महसूस किया था मैंने। चुपचाप उठकर फ्रेश होने चला गया।
नहा कर आया तो पसीने से तरबतर मेरे लिए मीरा लौकी का हलवा बना रही थी।मैं चुपचाप उसकी बगल में आकर खड़ा हो गया। बहु तो मुझे देखकर ही दरवाज़े से वापस मुड़ गयी।
“क्या बना रही हो?” मैंने बात शुरू करनी चाही तो मीरा का ध्यान मुझपर आया। उसका हाथ भी जलते जलते बचा।
“आप यहाँ!” कहते कहते आज उसके चेहरे पर हँसी देखी मैंने।
“क्यों !आ नहीं सकता? आप जानती नहीं हैं कि मुझे खाने के बारे में सब पता है।
“खाना बनाने के बारे?” मीरा में वही अल्हड़ मीरा झाँक रही थी।
“नहीं! खाना खाने के बारे में।” मीरा खिलखिलाकर हँस पड़ी थी लेकिन अगले ही पल संजीदा होकर बोली कि बाहर चलिये।हलवा तैयार है। बस अभी लाती हूँ।
जिस पल को मैं हमेशा के लिए कैद कर लेना चाहता था वो सचमुच क्षणिक था। बस मेरी मीरा के झुर्री भरे चेहरे को छूकर चला गया। मगर अब तो जिद्द हो चली थी कि ये पल और आएंगे।
बच्चे सब अपने अपने काम पर चले गए तो मीरा के साथ अकेले वक़्त बिताने का समय और मिला। वो कोई धार्मिक किताब पढ़ने लगी और मैं उसके चहरे को निहारता रहा। आज पहली बार मुझे एहसास हुआ था कितना बुरा लगता है जब सामने वाला कठोर होकर अपने नियमों पर चलता रहे और आप उपेक्षित महसूस करें। वो नन्हीं स्मृतियां भी याददाश्त के किसी कोने से झाँक रहीं थीं जब मीरा रात रात भर मुझे ऐसे निहार कर पलकें गीली करती रहती थी और मैं मुँह फेरकर बेफिक्र सो जाता था।
“सुनो कहीं बाहर चलें। तुम्हारे किसी आश्रम या जहाँ तुम चाहो।मैं जरा बोर हो रहा हूँ।” मैं जानता था अब वो मुझे टाल न सकेगी।
“कहाँ चलेंगे? वहाँ आपके टाइप का माहौल नहीं होगा।वहाँ भी बोर हो जाएंगे।” मीरा ने चश्मा उठाकर कहा था।उसकी आवाज़ कठोर थी मगर भीगी भी। जैसे मुझसे शिकायत कर रही हो कि आज इतने सालों बाद मेरी सुध लेने का मन कैसे हुआ?
“मुझे भी पता होना चाहिए कि तुम जिसपर मेरी कमाई लुटाती हो, उनकी क्या दशा है।” मेरे इतना कहने पर न जाने क्यों वो उठकर चली गयी।मुझे खुद पर बहुत गुस्सा आया।
क्या कह दिया मैंने! सचमुच बोलने का पता ही नहीं है मुझे।न जाने वो क्या समझी।
“चलिये! सही कहा आपने।आपको हक़ है ये पता होने का।आखिर सब आप ही का दिया है।”उसकी आँखों में छलकता स्वाभिमान और उसकी जुबान से निकली ये कडवाहट मुझे एहसास दिला गयी कि मैंने कुछ गलत कह दिया। मगर अंजाम अच्छा हो तो आगाज़ से क्या डरना! उसे भी तो मेरे कडुएपन की आदत हो चुकी होगी।तो मैं इतना तो सहन कर ही सकता हूँ। इस बहाने मुझे मीरा के साथ वक़्त बिताने को मिला और उसके बारे में जानने को भी।
फिर से मेरे अहम को चोट लगी जब पता चला कि वो फैक्ट्री न जाते हुए भी अपना फर्ज निभा रही थी गुडविल के रूप में। सब फैक्ट्री और मेरे नाम से ही हो रहा था।आज मुझे सचमुच बहुत बौना महसूस हुआ। उसके कारण नहीं।ये जानकर कि मैंने सचमुच पैसे कमाने के सिवा कुछ नहीं किया जिंदगी में। मगर ये तो शुरुआत थी आत्मविश्लेषण और मीरा के दिल को जीतने की राह पर।
“एक ही फ़न तो हम ने सीखा है
जिस से मिलिए उसे ख़फ़ा कीजे ”
गाड़ी चलाते चलाते मेरे मुँह से जॉन एलिया का शेर सुनकर मीरा ने मुझे अनमने ढंग से देखा, मगर कुछ भी नहीं बोली।
“वैसे! आई अम लकी टू हैव यू ऐज़ माय लाइफ पार्टनर।” मैंने फिर उसकी आँखों में आँखें डालने की कोशिश की।
“लेकिन मैं नहीं।” एक सपाट सा जवाब मेरे मुँह पर दे मारा मीरा ने। मुझे उसके इतना कर्कश हो जाने की उम्मीद न थी। कम से कम इतना ही रहम कर लेती कि मैं दिल का मरीज हूँ। मेरा दिल टूट चुका था और अहम फिर अपनी जगह बना रहा था। कुछ भी बहस करने की बजाय मैं चुप हो गया। कहीं पढ़ा था कि औरतें पति के प्यार के बिना कमज़ोर और मानसिक तनाव की शिकार हो जाती हैं। मगर मीरा तो मुझे और अधिक मजबूत और पत्थर दिल महसूस हुई।
हम चुपचाप घर पहुंच गए। बहु के चेहरे पर उत्सुकता थी सब कुछ जानने की। विहान तो मुझसे लिपट कर इतना खुश था कि मुझे अभी अभी हुआ अपना अपमान भी भूल गया।
“बहु आज अपनी माँ की पसन्द का खाना बनवा लेना।” न जाने क्यों आराधना से मैं खुलने लगा था। फिर उसे देखकर बिटिया रागिनी की याद आ गयी। बार बार कॉल बार तक जाके खुद को रोक रहा था। फिर न जाने कब गलती से ही सही पर रागिनी का नंबर डायल हो गया।
“हेलो! राधे राधे पापा! आप! आज आपने मुझे फोन किया! कैसे हैं आप सब? माँ ठीक हैं? सब ठीक है न!” रागिनी एक ही साँस में चहक उठी।
“राधे राधे बेटा! सब ठीक है।तुम सब कैसे हो?”मेरा भी गला भीग आया था।
“सब अच्छे हैं पापा। आपने आज कैसे याद किया? मुझे यकीन नहीं हो रहा कि आज आपने मुझे याद किया।” बेटियाँ सचमुच अपने माता पिता को उम्रभर प्यार करती हैं चाहे दूरियाँ कितनी भी बढ़ जाएं। ये एहसास मुझे रागिनी की भीगी आवाज़ सुनकर हुआ।
“बेटी हो तुम मेरी।भूला ही कब था जो याद करने की नौबत आए।” मेरे जैसे बिजनेसमैन को वाक चतुरता तो पहले ही आती थी और बेपनाह उमड़ रहे जज्बातों ने भावनाओं को शब्द दे दिए।
दोनों तरफ़ भावनाओं का ज्वर उफ़ान पर था। फिर दिल को संयत करते हुए मैंने उसे इधर उधर की बातों के बाद उसकी माँ को खुश करने के कुछ तरीके पूछे। आखिर वही थी जो समय पर सालगिरह आदि मुझे याद दिलाया करती थी अपने बचपन में। उसने बहुत ही प्यार से मुझे फिर अपनी भाभी के पास टरका दिया ये कहकर कि माँ के बारे में अब भाभी बेहतर जानती होंगी।
मेरा मन फूला नहीं समा रहा था मेरे परिवार में ये प्यार देखकर। ये सब मेरी मीरा के ही उच्च संस्कार थे जो मेरी बेटी की जुबान से, मेरी बहु के व्यवहार से, मेरे बेटे के अनुशासन से झलक रहे थे। जिस बेटी के अपना जीवनसाथी चुनने के अपमान को मैं आजतक दिल पे लगाए बैठा था वो तो आज भी अपने संस्कार दिखा गयी।
“कब आएगी बेटा? तेरी माँ भी तुझे याद कर रहीं थीं।” मैं माँ का पर्दा लेकर उसकी एक झलक पाने को बेकरार हो रहा था।आखिर मेरी लाडली मुझे सचमुच बहुत अजीज थी।उसकी हर इच्छा कहने से पहले पूरी हुई इसलिए उससे अपेक्षा थी कि वो मेरी पसंद से ही शादी करेगी। मैं अपनी बिटिया से भी दूरी बनाकर कितना गलत कर रहा था, ये एहसास मुझे और ग्लानि से भर गया।
अबसे दिल में कुछ नहीं रखूँगा। जब मन होगा तब सबसे बात करूंगा। अपने दिल को और नहीं रोकूंगा। और मीरा से माफी मांगकर उसे मनाकर रहूंगा।आज दिल बहुत हल्का महसूस हुआ।
बहु से बात करने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाया।लेकिन मैने अपनी कोशिशें तेज़ कर दीं। रोज़ एक नई उम्मीद से उठता और एक कदम अपनी मीरा की ओर बढ़ा देता। हफ्ते तक फैक्ट्री की भी सुध न ली थी। बस दिन रात मीरा के पीछे पीछे घूम कर उसे जानने की कोशिश करता रहता। उसके लिए बहुत सारे पेंट्स, ब्रश आदि भी मंगवाए। कितनी रिसर्च की थी मैंने ये समझने के लिए की पति से उपेक्षित बीवियों को उनके हुनर के करीब भेज जाए तो वो खुद ब खुद पति के करीब भी हो जाती हैं।
कूरियर खोलकर देखती हुई मीरा खुश भी थी पर अगले ही पल उसने मेरी तरफ़ देखते हुए कहा था- “इन सब की कोई जरूरत नहीं है। अब हाथों में न ही जान है और न ही दिल में कोई अरमान या विचार जिन्हें तस्वीर का रूप दे सकूँ।”
मेरी हिम्मत टूटने लगी थी। लेकिन मैं एक भी ऐसा कमजोर पल नहीं ढूंढ पाया जब मीरा मेरे भावों को समझे और वैसे ही जवाब दे। तभी आराधना ने आकर मुझे एक गिफ्ट दिया।
“पापा! ये माँ को अपनी तरफ़ से दे दीजिएगा। उन्हें अच्छा लगेगा। मैं जानती हूँ आप सोच रहे होंगे कि मैं क्यों ये सब कर रही हूँ। मुझे रागिनी ने बताया था।मैं समझ गयी थी आपकी हिचकिचाहट। लेकिन ममा के चेहरे पर खुशी सिर्फ आप ही नहीं हम भी देखना चाहते हैं।” कहकर वो चली गयी बिना मेरा जवाब सुने।
मैं कवर को देखता रहा।ये क्या हो सकता था मैं समझ ही नहीं पा रहा था।
मैंने उसे बिना खोले ही मीरा को देने का निर्णय लिया। बहु पर मुझे विश्वास हो चला था।
मीरा ने मुझसे लेते हुए पूछा था कि वो क्या है और मैंने उसे तभी खोलने को कह दिया।
“अर्रे ये मेरी डायरी आपको कहाँ से मिली? कितने दिन से इसे ढूँढ रही थी। कितने दिन से एक भजन मेरे मन में है मगर लिख नहीं पा रही थी! और ये सीडी में क्या है?” उसे उलटती पलटती वो सीडी प्लेयर के पास पहुंच गई। उसकी आँखों में कुछ खोया हुआ पा लेने का जो सुकून था, वो देखने लायक था।
मैं तो खुद ही हैरान था और बेहद खुश भी।सीडी चलते ही वो भावुक हो गयी। उसके गाये सारे भजन सीडी में कैद थे। उसीकी आवाज़ में।उसकी आँखों से मोती झर रहे थे।
” ये आपने कब किया? ये..ये तो मेरे लिखे भजन मेरी ही आवाज़ में हैं।कैसे?” वो मेरी तरफ आते हुए बोली।
“माँ पापा ने ये काम मुझे सौंपा था। आप जब भी किचन में गुनगुनाती थीं तो मैं चुपके से रिकॉर्ड कर लेती थी। फिर जब सीडी बनवाने लगी तो बैकग्राउंड क्लियर करने के लिए आपकी डायरी चुरानी पड़ी। सॉरी!” आराधना ने पीछे से आते हुए कहा था।
मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि उसका शुक्रिया कैसे करूँ। लेकिन मीरा के चहरे की खुशी ही तो हमारा मकसद था। मीरा के चहरे के भाव फिर बदलने लगे।मुस्कुराते मुस्कुराते वो भावशून्य सी मुझे देख रही थी। वो बदहवास सी गिरने लगी तो मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। मैं भी जैसे कुछ सोचने समझने की शक्ति खो बैठा था। मीरा नीचे बेहोश पड़ी थी।
आराधना ने जल्दी से मीरा को बाहर तक ले जाने के लिए मेरी मदद माँगी और फटाफट गाड़ी में मीरा को लिटाकर मुझे साथ चलने को कहा।
आराधना ने जल्दी से मीरा को बाहर तक ले जाने के लिए मेरी मदद माँगी और फटाफट गाड़ी में मीरा को लिटाकर मुझे साथ चलने को कहा।
मैं बेसुध सा उसके साथ हो लिया। कुछ समझ नहीं पा रहा था। जिंदगी रील की तरह आँखों के सामने घूम गयी। डॉक्टर्स मीरा को देख रहे थे। मैं मौन सा सब देख रहा था।
“पापा आप यहाँ बैठ जाइए।मैं और अनु सब सम्भाल लेंगे।” समर ने हाथ पकड़ कर मुझे कुर्सी पर बैठाया। मुझे नहीं याद वो कब आया। रागिनी भी आ चुकी थी।
मैं भावशून्य हो चुका था। एक पल आया था जिसने मुझे इतना बदल दिया था।फिर ये एक पल क्यों आ गया जिसमें मुझसे मेरी मीरा छिन रही थी?क्यों कान्हा ने मुझे मीरा के प्रति मोह में फंसाया। अगर उसे जाना ही था तो वो पल क्यों मेरी जिंदगी में आया था! जब उसे उसके हिस्से का प्यार मिलना ही नहीं था तो मुझमें इतनी भावनाएं क्यों भर दीं। क्या ये मेरे ही कर्मों की सज़ा थी? मगर मैंने जानबूझ कर कभी उसका दिल नहीं दुखाया था। मेरी परवरिश ऐसी थी इसमें मेरा क्या कुसूर था! उस जमाने के पतियों से तो मैं बेहतर ही था। मीरा के प्रति वफ़ादार भी था।…विचारों की कुश्ती सी मेरे अंदर शुरू हो चुकी थी। थोड़ी देर बाद क्या हो रहा था सब सुनाई देना बंद हो गया।
दो घण्टे बाद..
“पापा को होश आ रहा है समर..जरा सम्भालो उन्हें।” आराधना की आवाज़ थी।
” पापा आप ठीक हैं?” अब कहीं दर्द तो नहीं?” समर मेरा हाथ पकड़े खड़ा था।
आँखें खुली तो मैं स्ट्रेचर पर मीरा की बगल में था। मीरा का एक हाथ बिल्कुल स्थिर लगा। वो मुझे अश्रुपूरित आंखों से देख रही थी। मैं उठकर उसे बाहों में भर लेना चाहता था लेकिन मुझे रोक दिया गया।
“बस लेटे लेटे बात कीजिये पापा। अभी आपकी भी तबियत ठीक नहीं है।” समर ने कसकर मेरा हाथ पकड़ लिया।
“मैं ठीक हूँ। मुझे क्या हुआ है। तुम्हारी माँ बेहोश हुई थी। और ये ऐसे लाचार सी क्यों देख रही है?”मैं घबराहट के मारे बोल नहीं पा रहा था, उठ नहीं पा रहा था।
“कुछ नहीं हुआ पापा। सब ठीक है। आप दोनों ठीक हो। बस अभी थोड़ा रेस्ट कीजिये। आप भी बेहोश हो गए थे। माइनर अटैक आया था आपको।” रागिनी मुझे लिटाते हुए बोली।
“और तुम्हारी माँ!” मेरा मन आशंकित हो उठा था।
“माँ भी ठीक हैं। एकदम ब्लड प्रेशर बढ़ने से उनके दिमाग के पीछे कोई नस फट गई थी। मगर उन्होंने कान्हा की इतनी भक्ति की है कि हल्का सा लकवा मारा है हाथ को। ये भी महीने भर में ठीक हो जाएगा। हम सब हैं न इनकी सेवा करने के लिए!” आराधना पूरे विश्वास से मुस्कुराते हुए कह रही थी मगर उसकी आँखें छलक आयी थीं।
मैं फूट फूट कर रो पड़ा था। आज कुछ नहीं छुपा पाया। बच्चों के सामने भी नहीं। माँ बाप को खोने के बाद एक मीरा ही तो थी जिसपर मैं अपना पूरा हक़ समझता था।मेरी गलतियों ने उसे इतना तोड़ दिया कि आज वो भी मुझे छोड़ कर चली जाती।
“ठीक हूँ मैं। आप हिम्मत रखिये। आपकी मीरा इतनी कमज़ोर नहीं कि एक खुशी का पल ही उसे अपने संग ले जाए। अपना हक लेकर ही रहूंगी।” मीरा टूटी फूटी सी मुझे छूने की कोशिश कर रही थी।
“मैं तुम्हें जाने दूँगा तब न!” मैं बिना कुछ सोचे उठकर मीरा से लिपट गया।
” हाँजी! जानती हूँ। मैं चली गयी तो मेरे बच्चों पर रौब झाड़ते फिरोगे। वैसे भी आपको मेरे सिवा कोई बर्दाश्त नहीं कर सकता। झूठे कहीं के।” मीरा ने मुझसे लिपटे हुए तसल्ली दी या ताना! मगर मुझे सब कुबूल था।
“झूठे!मैंने भला आजतक कभी तुमसे कोई झूठ कहा? ये तो सरासर इल्ज़ाम है।” मैं बच्चों के सामने जलील सा महसूस कर रहा था। आखिर इतना बुरा भी नहीं हूँ मैं।
“सीडी का प्लान बहु का और नाम आपका। ये झूठ नहीं तो क्या था?” मीरा के इस प्रश्न पर मेरी नज़रें तो शर्मिंदगी से झुक गईं। आराधना ने ही पूछा था कि ये झूठ पकड़ा कैसे गया!
“तेरे पापा को आजतक पता ही नहीं था कि मैं किसी डायरी में भजन भी लिखती हूँ। तो ये सब इनका करा धरा हो ही नहीं सकता।”, मीरा मुझे घूरते हुए बोली तो वातावरण में हँसी गूंज उठी। अब मुझसे रहा नहीं गया।
“अगर मेरी टाँग खींच ली हो तो अब लौट चलें?” मेरे सवाल का फिर टेढ़ा ही जवाब मिला- ” कहाँ? फैक्ट्री? क्योंकि घर में तो आपका मन लगेगा नहीं। और लग भी गया तो आप हमारा नहीं लगने दोगे।”
” क्यों मैं क्या इतना बुरा हूँ? और मैं तो बुजुर्ग हो गया हूँ। फैक्ट्री अब आराधना सम्भालेगी। मेरी तो अब रेस्ट करने की उम्र है। देखो अभी भी दिल में दर्द है! आह!” मैंने दिल पर हाथ रखते हुए आँखें घुमाकर चुहलबाज़ी की तो सब घबरा गए।
“कुछ नहीं हो सकता तुम्हें। दिल में दर्द तो दिल वालों को होता है।तुम तो दिल की जगह पत्थर लेकर घूमते हो।” मीरा ने फिर मुझे टौंट मारा।
“प्यार तो मिला नहीं कभी किसी का।चलो टौंट से ही काम चला लेंगे। सारी जिंदगी तुम्हें सताने की ये सज़ा मंजूर है। साथ ही तुम्हारे सारे काम भी कर दिया करूँगा।मुफ़्त में। अब तो चलें घर!!” मैंने कान पकड़ कर मीरा को प्यार भरी नजरों से देखते हुए कहा तो उसने आँखों से सहमति दे दी। वातावरण में ठहाके गूंज रहे थे और गीत भी- आ अब लौट चलें..। आखिर बूढ़े बुढ़िया की लवस्टोरी शुरू हो चुकी थी।
–भारती वशिष्ठ
सोनीपत, हरियाणा

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
