लघुकथा : औकात – वीरेन्द्र प्रधान सागर, मध्यप्रदेश

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लघुकथा

औकात

साठ की उम्र में सरकारी नौकरी से रिटायरमेन्ट के बाद रामानुज ने अपनी कविताओं के संकलन के प्रकाशन का सोचा। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित कविताओं की कतरनें एकत्रित कीं। पुरानी डायरियों को खंगाला।रफ से फेयर करके और फिर टाईप कराके उसने मेहनत से अपने संग्रह की पाण्डुलिपी तैयार की।कुछ प्रकाशकों से प्रकाशन के संबंध में बात की। बड़े और नामी प्रकाशक उसकी किताब को छापकर देने के लिए अधिक समय मांगते थे।प्रकाशन का व्यय भी नामचीन प्रकाशकों ने अधिक बताया।छपी हुई किताब की बिक्री में रचनाओं के उम्दा होने के साथ अच्छे प्रकाशक का नाम जुड़े रहने की महत्वपूर्ण भूमिका होती है,इस तथ्य से वह अनजान न था।मुद्रक का नाम,किताबों की संख्या,रायल्टी जैसे प्रश्नों के मन माफिक समाधान के बाद उसने एक नामी प्रकाशक से किताब के प्रकाशन का अनुबंध कर लिया और किताब छपने डाल दी।
लगभग छह महीने की प्रतीक्षा के बाद किताब छपकर आ गई। किताब के विमोचन और लोकार्पण की तारीख और समय तय किया गया। लोकार्पण के दिन शहर के महत्वपूर्ण साहित्यकारों द्वारा अध्यक्षता करने ,मुख्य अतिथि बनने और अपने पसंदीदा समीक्षकों द्वारा समीक्षा करने हेतु स्वीकृति प्राप्त कर ली गई।मंच से ही एक काउंटर पर विमोचित कृति के रियायती मूल्य पर बिक्री के लिए उपलब्ध होने की घोषणा की गई। आभार प्रदर्शन के बाद कार्यक्रम की समाप्ति पर उसने पाया कि जितनी किताबों की बिक्री हुई वह आयोजन-व्यय का दशमांश भी न था। आकर्षक कवर, किताब की श्रेष्ठ समीक्षाओं, एक बड़े प्रकाशक का नाम जुड़े होने के और उसके स्वयं एक प्रतिष्ठित लेखक समूह से जुड़े रहने के बावजूद प्रकाशित किताब की न्यूनतम बिक्री से उसे बड़ी निराशा हुई।अपनी भाषा में खरीदकर किताबें पढ़ने का युग कब आयेगा यह सोचकर वह परेशान रहने लगा।लगभग एक साल बाद प्रकाशक की ओर से प्राप्त रायल्टी की राशि पाकर उसे खुशी मिलने के बजाय क्षोभ हुआ। किताबों की न्यूनतम बिक्री के बारे में जानकर वह मर्माहत हुआ।उसे अपनी औकात पता चल गई और अगली किताब के प्रकाशन की योजना को उसने सिरे से खारिज़ कर दिया।
वीरेन्द्र प्रधान सागर, मध्यप्रदेश

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