

लघुकथा
परीक्षा
” सर जी , बात क्या है । आप जब देखो तब मुझे ही पकड़ लेते हो । और किसी को तो कुछ नहीं कहते।मैने आपका क्या बिगाड़ा है?” परीक्षा कक्ष में लड़का मास्टर जी पर बिगड़ गया ।
” बेटा ! जिसके पास नकल की पर्चियां पायी जायेगीं या जो नकल करता हुआ पाया जायेगा , उसे ही तो पकड़ा जायेगा । ” गुरु जी ने झिझक के साथ कहा ।
” ये क्या बात हुई सर जी ? एक तो आप पेपर इतना मुश्किल बनाते हो और ऊपर से यह आपकी यह पुलीसगिरी । पास होने दोगे या नहीं।”
” बेटा ! दूसरे बच्चे भी तो यही पेपर साल्व कर रहे हैं , उन्हें तो कोई शिकायत नहीं है , तो पेपर मुश्किल कैसे हुआ ? ” गुरु जी ने थोड़ी सख्ती दिखाई ।
” सर जी ! दूसरे बच्चे क्या कर रहे हैं या क्या नहीं। उसे छोड़िये । जैसे आप दूसरे बच्चों को आराम से पेपर करने दे रहे हैं , मुझे भी करने दिजीये , बस । ” लड़का स्वभाव से उदण्ड था , इसलिये भड़क गया ।
” भले ही तुम नकल करो ? ” प्रतिक्रिया में गुरु जी को गुस्सा आने को हुआ ।
” गुरु जी ! पांचों उंगलिया एक सी नहीं होतीं। सबको एक ही तरह की लाठी से हाँकने की जिद मत कीजिये । मुझे शान्ती से मेरा पेपर साल्व करने दिजीये , ये मेरा हक़ है । आपका और मेरा भला इसी में है कि आप ये बात अच्छी तरह से समझ लिजिए । ” लड़का पूरी तरह से अपनी मंशा जाहिर कर चुका था।
मास्टर जी परीक्षार्थी के बगावती तेवर देखकर हैरान थे। उन्हें लगा ये तो चोरी और सीना – जोरी दोनों है। इस तरह तो सारे कक्ष का माहोल अराजक हो जायेगा ।
उन्हें सचमुच गुस्सा आने को हुआ । वे क्रोध में कुछ कहना ही चाहते थे कि तभी उनका एक छात्र जल्दी से अपनी सीट से उठकर उनके पास आया और धीरे से बोला , ” सर जी ! इससे उलझिये मत । ये पत्थर चलाने लोगों की टोली का मेम्बर है और अक्सर इसी काम के लिये अपने लोगोंं की रेलियों में भी जाता है । ”
गुरु जी ने हालात की गम्भीरता पर विचार किया । वे जानते थे कि अगर उन्होंने ज्यादा सख्ती बरती तो बात प्रधानाचार्य तक जा सकती है और क्या पता वे भी यही निर्णय दें कि इतनी सख्ती कि जरुरत क्या है ! इसी बीच उन्हें अपने इंस्पेक्टर पुत्र की आज सुबह की बात भी याद आयी , ” बाबू जी ! हमारे यहां अपराधियों के अपराध की सजा कानून की किताबों के हिसाब से नहीं , अपराधी की हैसियत के हिसाब से तय होती है । ”
उन्होंने सोचा नजरअंदाज करना ही बेहतर विकल्प है । वे पीछे हटने को ही थे कि उनकी दृष्टि कक्ष में बैठे अन्य बच्चों पर गयी जो पूरे मनोयोग से अपने – अपने प्रश्न – पत्र हल कर रहे थे। पलक झपकते ही उनके अध्यापक मन ने अंगड़ाई ले ली। वे निश्चय कर चुके थे कि उन्हें क्या करना चाहिये। जो होगा , देखा जायेगा। वे उस उद्दंड बच्चे के पास गए और उसके पास की नक़ल की सारी पर्चियां लेने के बाद उसे नयी उत्तर – पुस्तिका देते हुए बोले , ” तुम्हारा और मुझ सहित सभी का भला इसी बात में है कि तुम प्रश्नों के हल बिना कोई नक़ल करके करो। नहीं कर सकते तो परीक्षा कक्ष से चले जाओ। ”
लड़के को मास्टर जी में इस आत्मविश्वास की आशा नहीं थी। उसके पास प्रश्नपत्र को अधूरा छोड़कर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
–सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
साहिबाबाद ।

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
