लघुकथा : यह कौन-सा रिश्ता – अंजना वर्मा, बेंगलुरू

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लघुकथा

यह कौन-सा रिश्ता

विभा के पति का निधन अभी हाल में ही हुआ था और वह अभी तक अपने को सामान्य नहीं कर पाई थी । उदासी में डूबी बाहर बरामदे में बैठी थी कि उसने देखा दो किन्नर अहाते के भीतर चले आ रहे हैं। ये दोनों वही थे जो पिछले साल उसकी पोती के जन्म की खुशी में खूब नाचे थे । वह सोचने लगी कि ऐसे दुख-भरे दिनों में इन्हें किसने गलत खबर दे दी कि घर में कोई खुशी हुई है? ये क्यों आ रहे हैं?
अब तक वे दोनों आकर उसके सामने खड़े हो गए थे। पर आज उनके चेहरे पर कोई चंचलता नहीं थी। उन्हें खामोश देखकर विभा ने ही बुझे स्वर में पूछा, “किसी ने तुम्हें बताया नहीं कि ये नहीं रहे?”
उनमें से एक ने कहा, “दीदी हमें मालूम हुआ। मोहल्ले के लोगों ने हमें बताया।”
फिर कुछ ठहरकर वह बोला,”दीदी! इसीलिए तो हम आए हैं । हमें सुनकर बहुत दुख हुआ कि यह क्या हो गया तुम्हारे साथ? ईश्वर ने क्या कर दिया? अपने को सँभालो। और क्या कहें?”
वे वापस जाने के लिए मुड़े। विभा सहानुभूतिपूर्ण वचन सुनकर भीतर से द्रवित हो गई थी ।
उसने कहा,”रुको-रुको ! ऐसे मत जाओ। तुम तो अपने रोजगार पर निकली हो। सुबह-सुबह खाली हाथ मत जाओ।”
विभा ने सौ रुपए का नोट उसके हाथ में पकड़ा दिया और सोचने लची लगी कि क्या कोई इनकी संवेदनशीलता को समझ सकता है ? जिसके यहाँ वे खुशी में नाचने-गाने आए, उसी के यहाँ गम में भी शरीक होने चले आए । समाज ने जिन्हें किसी रिश्ते के योग्य नहीं समझकर , सदियों से बहिष्कृत कर रखा है, उन्होंने ही उसके साथ जो रिश्ता बना लिया उसे क्या नाम दे‌ वह? और आज तो अपनी सहृदयता का परिचय देकर वे सचमुच ही उसकी नज़र में बहुत ऊपर प्रतिष्ठित हो गए थे — स्त्रीलिंग-पुल्लिंग से ऊपर!

अंजना वर्मा
बेंगलुरू-560103

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