काव्य : बाकी है – देवेंद्र जेठवानी भोपाल

139

बाकी है

यूँ तो अपने घर से लेकर चले थे, हम अरमान तो बहुत,
उनमें से कुछ हो गए मुकम्मल, कुछ अब भी बाकी हैं,

सुन तो बहुत रखे थे हमने, तेरे शहर के कई किस्से,
बाकी सब तो देख लिया, बस इक तेरा दीदार बाकी है,

बिन माँगे ही ख़ुदा ने, यूँ तो दिया है मुझको बेहिसाब,
ये मिलक़ियत तो ठीक है, बस इक तेरा मिलना बाकी है,

इस जहान से हँसकर “देव”, मैं हो जाऊँगा रुख़सत,
रुख़सत होने से पहले, उसे जी भर कर देखना बाकी है,

देवेंद्र जेठवानी
भोपाल

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here